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पूर्णोपमा
पूर्ववाक्यम्
वाला वाक्य पुष्प कहा जाता है- पुष्पं विशेषवचनं मतम् । यथा र.ना. में राजा की यह उक्ति - श्रीरेषा पाणिरप्यस्याः पारिजातस्य पल्लवः । कुतोऽन्यथा स्रवत्येष स्वेदछद्मामृतद्रवः || ( 6/91)
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पूर्णोपमा - उपमा का एक भेद । यदि उपमेय, उपमान, सामान्यधर्म, औपम्यवाची शब्द ये चारों शब्दतः उक्त हों तो पूर्णोपमा होती है-सा पूर्णा यदि सामान्यधर्म औपम्यवाचि च । उपमेयं चोपमानं भवेद् वाच्यम्... ।। इसका उदाहरण है- मुखं चन्द्र इव मनोज्ञम् । यहाँ मुख उपमेय, चन्द्र उपमान, मनोज्ञ सामान्यधर्म तथा इव औपम्यवाची शब्द हैं। इसके दो भेद श्रौती और आर्थी हैं जो तद्धित, समास और वाक्य में स्थिति के आधार पर तीन-तीन प्रकार के होते हैं। इस प्रकार इसके छः भेद हैं। (10/19)
पूर्वरङ्ग :- नाट्य से पूर्व किया जाने वाला मङ्गलाचरण । नाट्यप्रयोग से पूर्व रङ्ग के विघ्नों को शान्त करने के लिए नट जो मङ्गलाचरण करते हैं, वह पूर्वरङ्ग कहा जाता है - यन्नाट्यवस्तुनः पूर्वं रङ्गविघ्नोपशान्तये । कुशीलवा: प्रकुर्वन्ति पूर्वरङ्गः स उच्यते । । नाट्य से पूर्व अनुष्ठान होने के कारण इसकी यह संज्ञा अन्वर्थिका ही है। आचार्य भरत ने यवनिका के अभ्यन्तर तथा बाहर सम्पन्न होने वाली प्रत्याहारादि उन्नीस प्रकार की पूर्वरङ्गविधियों का उल्लेख किया है। आचार्य विश्वनाथ ने उनका उल्लेख नहीं किया । (6 / 10 )
पूर्वरागः - विप्रलम्भ शृङ्गार का एक प्रकार । गुणों के श्रवण अथवा दर्शनादि से परस्पर अनुरक्त नायक और नायिका की मिलन से पूर्व की जो विशेष स्थित है उसे पूर्वरांग कहते हैं- श्रवणाद् दर्शनाद् वापि मिथः संरूढरागयोः। दशाविशेषो योऽप्राप्तौ पूर्वरागः स उच्यते । । गुणों का श्रवण दूत, बन्दी अथवा सखी आदि से तथा दर्शन इन्द्रजाल, स्वप्न, चित्र में अथवा कभी-कभी साक्षात् भी हो जाता है। यह तीन प्रकार का होता है - नीलीराग, कुसुम्भराग तथा मञ्जिष्ठाराग। (3/193-94)
पूर्ववाक्यम् - निर्वहण सन्धि का एक अङ्ग । पूर्वोक्त अर्थ के उपदर्शन को पूर्ववाक्य कहते हैं - पूर्ववाक्यं तु विज्ञेयं यथोक्तार्थोपदर्शनम् । यथा, वे.सं. में भीम का कथन - बुद्धिमतिके ! क्व सा भानुमती । परिभवतु सम्प्रति