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पुन: पुन: दीप्ति:
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पुष्पम्
होता है। अर्थबोध के उपरान्त वह प्रतीति समाप्त हो जाती है- आपाततो यदर्थस्य पौनरुक्त्येन भासनम् । पुनरुक्तवदाभासः स भिन्नाकारशब्दगः ।। यथा- भुजङ्गकुण्डली व्यक्तशशिशुभ्रांशुशीतगुः । जगन्त्यपि सदापायादव्याच्चेतोहर: शिवः।। इस उदाहरण में ' भुजङ्गकुण्डली' शब्द में पुनरुक्ति प्रतीत हो रही है परन्तु 'भुजङ्गों के कुण्डल वाला' इस अर्थ का बोध होने पर यह मिथ्याप्रतीति समाप्त हो जाती है। इसी पद्य में 'शशिशुभ्रांशुशीतगु: ' पद भी एक ही चन्द्र अर्थ के वाचक प्रतीत होते हैं परन्तु वस्तुतः इस वाक्यांश का अर्थ है-शश तथा श्वेत किरणों वाले चन्द्रमा से युक्त । इसी प्रकार की प्रतीति ‘पायादव्यात्' तथा 'हर : शिव:' इन पदों से भी होती है परन्तु 'सदाअपायात् ' तथा 'चेतोहर: शिव:' इस प्रकार अर्थ का ज्ञान होने पर वह समाप्त हो जाती
है
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार यह शब्दार्थोभयालङ्कार है क्योंकि यहाँ कहीं तो शब्द की परिवृत्ति सह्य होती है तथा कहीं असह्य होती है । यथा उपर्युक्त उदाहरण में ही 'भुजङ्गकुण्डली' इस अलङ्कारस्थल में 'भुजङ्ग' पद को परिवर्तित करके उसका अन्य पर्याय रखा जा सकता है परन्तु 'कुण्डली' पद को परिवर्तित नहीं किया जा सकता। 'हर : शिव:' इस पद्यांश में उत्तरवर्ती 'शिव: ' पद ही परिवर्तित हो सकता है, 'हर : ' नहीं। ' भाति सदानत्याग: ' में दान और त्याग दोनों ही पदों की परिवृत्ति सम्भव नहीं है। इस प्रकार कहीं परिवृत्तिसहत्व तथा कहीं अपरिवृत्तिसहत्व होने के कारण यह उभयालङ्कार है। (10/2)
पुन: पुन: दीप्ति :- एक काव्यदोष । रस का बार-बार दीप्त होना, यथा कुमारसम्भव के रतिविलाप में । यह रसदोष है । ( 7/6)
पुष्पगण्डिका - एक लास्याङ्ग। इसमें गीत वाद्यों से मिश्रित होता है तथा अनेक छन्दों का प्रयोग होता है। यहाँ स्त्री तथा पुरुषों की चेष्टायें परस्पर विपर्यस्त होती हैं अर्थात् स्त्रियाँ पुरुषों का तथा पुरुष स्त्रियों का अभिनय करते हैं- आतोद्यमिश्रितं गेयं छन्दांसि विविधानि च । स्त्रीपुंसयोर्विपर्यासचेष्टितं पुष्पगण्डिका ।। (6/245)
पुष्पम् - प्रतिमुख सन्धि का एक अङ्ग । विशेष अनुरागादि उत्पन्न करन