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पर्यायोक्तम्
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पश्चात्तापः
इष्यते । । यथा-स्थिताः क्षणं पक्ष्मसु ताडिताधराः, पयोधरोत्सेधनिपातचूर्णिता: । वलीषु तस्याः स्खलिताः प्रपेदिरे, चिरेण नाभिं प्रथमोदबिन्दवः । । इस पद्य में एक ही वर्षा की बूँदें पक्ष्म, अधर, पयोधर, त्रिवली आदि में स्थित प्रदर्शित की गयी हैं जबकि इस पद्य - विचरन्ति विलासिन्यो यत्र श्रोणिभरालसाः । वृककाकशिवास्तत्र धावन्त्यरिपुरे तव । । में एक ही शत्रुनगर में भेड़िये, काक तथा गीदड़ों की स्थिति वर्णित है।
इस अलङ्कार में एक वस्तु अनेक में क्रम से जाती है, अत: यह विशेष अलङ्कार से भिन्न है। परिवृत्ति से भी इसका अभेद सम्भव नहीं क्योंकि यहाँ किसी प्रकार का विनिमय नहीं होता जो परिवृत्ति का मूल है। (10/104) पर्यायोक्तम् - एक अर्थालङ्कार । यदि भङ्गी से व्यङ्ग्य का ही अभिधा से कथन कर दिया जाये तो पर्यायोक्त अलङ्कार होता है - पर्यायोक्तं यदा भङ्ग्या गम्यमेवाभिधीयते । यथा-स्पृष्टास्ता नन्दने शच्या: केशसम्भोगलालिताः । सावज्ञं पारिजातस्य मञ्जर्यो यस्य सैनिकैः ।। हयग्रीव के सैनिकों ने पारिजात की मञ्जरियों को तिरस्कृत किया, इस कथन से उसकी विजय भी व्यक्त हो जाती है।
इस उदाहरण में कार्य से कारण की प्रतीतिरूप अप्रस्तुतप्रशंसा नहीं है क्योंकि अप्रस्तुतप्रशसा में कार्य प्रस्तुत नहीं होता। यहाँ हयग्रीव की विजयरूप कारण के साथ सैनिकों के द्वारा मञ्जरियों का तिरस्कार रूप कार्य भी प्रस्तुत है। (10/79)
पर्युपासनम् - प्रतिमुख सन्धि का एक अङ्ग । क्रुद्ध व्यक्ति के अनुनय को पर्युपासन कहते हैं - क्रुद्धस्यानुनयः पुनः स्यात्पर्युपासनम् । यथा र.ना. में विदूषक की " भो! मा कुप्य । एषा हि कदलीगृहान्तरं गता", इत्यादि उक्ति। (6/90)
पश्चात्ताप:- एक नाट्यालङ्कार । मोहवश किसी वस्तु का तिरस्कार करके अनन्तर उसके लिए अनुताप करना पश्चात्ताप कहा जाता है - मोहावधीरितार्थस्य पश्चात्तापः स एव तु । यथा, सीता को स्मरण करके राम की यह उक्ति-किं देव्या न विचुम्बितोऽस्मि बहुशो मिथ्याभिशप्तस्तदा । (6/218)