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परिवर्तकः ___ 104
परिसङ्ख्या में तापसी का दुष्यन्त के लिए यह निन्दायुक्त कथन-"कस्तस्य धर्मदारपरित्यागिनो नाम ग्रहीष्यति'। (6/128)
परिवर्तकः-सात्वती वृत्ति का एक अङ्ग। प्रारब्ध कार्य से अतिरिक्त कोई कार्य करने को परिवर्तक कहते हैं-प्रारब्धादन्यकार्याणां करणं परिवर्तकः। यथा वे.सं. में भीम का यह कथन-"सहदेव! गच्छ त्वं गुरुमनुवर्तस्व। अहमप्यस्त्रागारं प्रविश्यायुधसहायो भवामीति। अथवा आमन्त्रयितव्यैव मयात्र पाञ्चाली"। यहाँ अथवा' के द्वारा कार्य का परिवर्तन कर लिया गया है। (6/154)
परिवृत्तिः-एक अर्थालङ्कार। समान, न्यून अथवा अधिक के साथ विनिमय करने से परिवृत्ति अलङ्कार होता है-परिवृत्तिर्विनिमयः समन्यूनाधिकैर्भवेत्। यथा-दत्त्वा कटाक्षमेणाक्षी जहार हृदयं मम। मया तु हृदयं दत्त्वा गृहीतो मदनज्वरः।। इस पद्य में पूर्वार्ध में समान वस्तु का तथा उत्तरार्ध में अधिक देकर न्यून का आदान प्रदर्शित है। तस्य च प्रवयसो जटायुषः स्वर्गिणः किमिव शोच्यतेऽधुना। येन जर्जरकलेवरव्ययात्क्रीतमिन्दुकिरणोज्ज्वलं यशः।। इस पद्य में न्यून वस्तु देकर अधिक का आदान प्रदर्शित है। (10/105)
परिसर्पः-प्रतिमुख सन्धि का एक अङ्ग। नष्ट हुई इष्ट वस्तु के अन्वेषण को परिसर्प कहते हैं-इष्टनष्टानुसरणं परिसर्पश्च कथ्यते। यथा अ.शा. में शकुन्तला का अन्वेषण करते हुए दुष्यन्त का यह कथन-भवितव्यमत्र तया। तथा हि, अभ्युन्नता पुरस्तादवगाढ़ा जघनगौरवात् पश्चात्। द्वारेऽस्य पाण्डुसिकते पदपंक्तिर्दृश्यतेऽभिनवा।। (6/83)
परिसङ्ख्या -एक अर्थालङ्कार। प्रश्नपूर्वक अथवा विना प्रश्न के ही जहाँ कही हुई वस्तु की शब्द से अथवा अर्थसिद्ध व्यावृत्ति होती है, वहाँ परिसङ्ख्या अलङ्कार होता है-प्रश्नादप्रश्नतो वापि कथिताद्वस्तुनो भवेत्। तादृगन्यव्यपोहश्चेच्छाब्द आर्थोऽथवा तदा। परिसङ्ख्या ...। यथा-किं भूषणं सुदृढ़मत्र यशो न रत्नं, कि कार्यमार्यचरितं सुकृतं न दोषः। किं चक्षुरप्रतिहतं धिषणा न नेत्रं, जानाति कस्त्वदपरः सदसद्विवेकम्।। इस श्लोक में प्रश्नपूर्वक यश आदि का आभूषणादि के रूप में कथन करके पुनः रत्न आदि का शब्दत: निषेध किया गया है।