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________________ परिन्यासः 103 परिभाषणम् ____ रूपक में आरोप्य उपमान अवच्छेदक के रूप में अन्वित होते हैं। रूपक के उदाहरण "मुखचन्द्रं पश्यति" में चन्द्र केवल मुख का उपरञ्जक मात्र है, दर्शन क्रिया के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु परिणाम में उपमान का उपमेय के साथ तादात्म्य प्रतीत होता है। यहाँ उपमान का प्रकृत क्रिया में उपयोग भी होता है। (10/51) परिन्यासः-मुखसन्धि का एक अङ्ग। उपक्षेप द्वारा विक्षिप्त तथा परिकर द्वारा बहुलीकृत कथावृत्त की सिद्धि परिन्यास नामक सन्ध्यङ्ग है-तन्निष्पत्तिः परिन्यासः। अतएव सा.द. में मुखसन्धि के सन्दर्भ में इन तीनों के पौर्वापर्य का विधान किया गया है। इसका उदाहरण वे.सं. में भीम की यह उक्ति है-चञ्चद्भुजभ्रमितचण्डगदाभिघातसञ्चूर्णितोरुयुगलस्य सुयोधनस्य। स्त्यानावनद्धघनशोणितशोणपाणिरुत्तंसयिष्यति कचांस्तव देवि भीमः।। (6/71) परिपन्थिरसाङ्गविभावपरिग्रहः-एक काव्यदोष। प्रकृत रस के विरोधी रस के विभावादि का कथन, यथा-मानं मा कुरु तन्वङ्गि ज्ञात्वा यौवनमस्थिरम्। यौवन की अस्थिरता का वर्णन शान्तरस का अङ्ग है।शृङ्गारादि में उसका कथन दोषावह है परन्तु विरोधी रस के सञ्चारी आदि भावों का यदि बाध्य रूप से कथन किया जाये अर्थात् उनका कथन करके उन्हें प्रकृत रस के सञ्चारियों से दबा दिया जाये तो वह दोष न होकर गुणरूप ही होता है। विरोधी रस का स्मरण में अथवा समानता से कहने में अथवा किसी अङ्गीरस का अङ्ग बनाकर परिपाक कर देने में दोष नहीं होता। यह रसदोष है। (7/6) परिभावना-मुखसन्धि का एक अङ्ग। कुतूहलयुक्त कथनों को परिभावना कहते हैं-कुतूहलोत्तरा वाचः प्रोक्ता तु परिभावना। यथा वे.सं. में युद्ध होगा या नहीं, इस संशय से ग्रस्त द्रौपदी का रणदुन्दुभि सुनकर भीमसेन के प्रति "नाथ! किमिदानीमेष प्रलयजलधरस्तनितमांसलः क्षणे क्षणे समरदुन्दुभिस्ताड्यते"। यह कथन उसके कुतूहल को व्यक्त करता है। (6/77) परिभाषणम्-निर्वहण सन्धि का एक अङ्ग। निन्दायुक्त वाक्य को परिभाषण कहते हैं-वदन्ति परिभाषणं परिवादकृतं वाक्यम्। यथा अ.शा.
SR No.091019
Book TitleSahitya Darpan kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamankumar Sharma
PublisherVidyanidhi Prakashan
Publication Year
Total Pages233
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Literature
File Size9 MB
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