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पदश्लेषः
परम्परितरूपकम् साकाङ्क्ष अनेक पद और वाक्यों का व्यवच्छेद होता है। अर्थवत्त्व विशेषण से अनर्थक कचटतप' इत्यादि की व्यावृत्ति होती है। लक्षणवाक्य में 'वर्णाः' यहाँ बहुवचन अविवक्षित है क्योंकि एक अथवा दो वर्णों का भी पद हो सकता है। (2/4)
पदश्लेषः-श्लेषालङ्कार का एक भेद। जहाँ पद की श्लिष्टता से श्लेष की प्रतीति हो, वह पदश्लेष होता है। यथा-पृथुकार्तस्वरपात्रं भूषितनिश्शेषपरिजनं देव। विलसत्करेणुगहनं सम्प्रति सममावयोः सदनम्।। इस उदाहरण में पदभङ्ग करने पर विभक्ति और समास भी भिन्न हो जाते हैं [पृथु कार्तस्वर और पृथुक आर्तस्वर, भूषित हैं निश्शेष परिजन जिसमें और भू पर उषित हैं निश्शेष परिजन जिसमें, करेणुओं से विलसित और रेणुओं में हैं विलसत्क (चूहे, विले सीदन्तीति) जहाँ] अत: वे भिन्न ही पद बन जाते हैं इसलिए यह पदश्लेष का उदाहरण है। नीतानामाकुलीभावम् आदि श्लोक में मुखादि शब्दों के श्लिष्ट होने पर भी विभक्ति के अभिन्न होने के कारण वह प्रकृतिश्लेष का ही उदाहरण है क्योंकि पदश्लेष वहीं होता है जहाँ विभक्ति, समासादि भिन्न हों। (10/14 की वृत्ति) ____ पदोच्चयः-एक नाट्यलक्षण। अर्थ के अनुरूप पदों के गुम्फन को पदोच्चय कहते हैं-सञ्चयोऽर्थानुरूपो यः पदानां स पदोच्चयः। यथा अ.शा. के प्रसिद्ध पद्य-अधरः किसलयरागः कोमलविटपानुकारिणी बाहू। कुसुममिव लोभनीयं यौवनमङ्गेषु सन्नद्धम्।। में पदबन्ध अर्थ के सौकुमार्य के अनुरूप ही है। (6/179)
पद्यम्-श्रव्यकाव्य का उपभेद। छन्दोबद्ध पदरचना पद्य कही जाती है-छन्दोबद्धपदं पद्यम्। (6/302)
परकीया-नायिका का एक भेद। परपुरुष में अनुरक्त नायिका परकीया कही जाती है। वह दो प्रकार की होती है-परोढ़ा तथा कन्यका-परकीया द्विधा प्रोक्ता परोढ़ा कन्यका तथा। (3/81)
परम्परितरूपकम्-रूपक का एक भेद। जहाँ किसी एक का आरोप दूसरे के आरोप का कारण हो वह परम्परित रूपक होता है-यत्र कस्यचिदारोपः परारोपणकारणम्। तत्परम्परितम्...।। वह श्लिष्ट और