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निसृष्टार्थः
निहतार्थः स्थापना निश्चय अलङ्कार है-अन्यन्निषिध्य प्रकृतस्थापनं निश्चयः पुनः। यथा-वदनमिदं न सरोजं, नयने नेन्दीवरे एते। इह सविधे मुग्धदृशो भ्रमर, मुधा किं परिभ्रमसि।।
यह निश्चयान्त सन्देह नहीं है क्योंकि उसमें संशय और निश्चय का आश्रय एक ही होता है जबकि यहाँ सन्देह भ्रमर को हुआ है और निश्चय नायक को। दसूरे, वस्तुतः यहाँ भ्रमर को भी सन्देह नहीं है क्योंकि सन्देह होने पर उसकी प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती थी। यहाँ भ्रान्तिमान् भी नहीं है क्योंकि भ्रमर को भ्रान्ति तो अवश्य हुई है परन्तु उसमें कोई चमत्कार नहीं है। चमत्कार तो नायक की उक्ति में है। दूसरे, भ्रमर को भ्रान्ति अथवा उसकी प्रवृत्ति न होने पर भी नायिका को चाटुकारितापूर्वक प्रसन्न करने के लिए इस प्रकार का कथन सम्भव है। रूपकध्वनि तो नहीं ही हो सकती क्योंकि मुख का कमल के रूप में निर्धारण नहीं है। अपहनुति में उपमेय का निषेध किया जाता है परन्तु यहाँ मुख का निषेध नहीं है। अतः यह इन सबसे व्यतिरिक्त एक नवीन ही निश्चय नामक अलङ्कार है। (10/57)
निसृष्टार्थः-दूत का एक प्रकार। जिसने प्रेषित किया है और जिसके पास प्रेषित किया है, उन दोनों के अभिप्राय को समझकर जो स्वयम् उत्तर दे दे तथा कार्य को सम्पन्न कर ले वह निसृष्टार्थ दूत होता है-उभयोर्भावमुन्नीय स्वयं वदति चोत्तरम्। सुश्लिष्टं कुरुते कार्य निसृष्टार्थस्तु स स्मृतः।। (3/59)
निहतार्थ:-एक काव्यदोष। प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध दोनों अर्थों के वाचक शब्द का अप्रसिद्ध अर्थ में प्रयोग निहतार्थ है-निहतार्थत्वमुभयार्थस्य शब्दस्याप्रसिद्धेऽर्थे प्रयोगः। यथा-यमुनाशम्बरं व्यतानीत्। इस पंक्ति में शम्बर शब्द जल अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (नीरक्षीराम्बु शम्बरम् इति कोशः) परन्तु यह शम्बर नामक असुर के लिए ही प्रधानतया प्रयुक्त होता है।
इसी प्रकार "अकालसन्ध्यामिव धातुमत्ताम्" में 'मत्ता' यह अंश प्रमत्त स्त्री का वाचक प्रसिद्ध है, तद्वत्ता रूप अर्थ में अप्रसिद्ध। पद के एक अंश में होने के कारण यह पदांशदोष है। __अप्रयुक्त दोष एकार्थक शब्दों में ही होता है, निहतार्थ व्यर्थक शब्दों में। श्लेषादि में यह दोष नहीं होता। (7/3)