________________
नीतिः
97
पताका नीतिः-एक नाट्यालङ्कार। शास्त्रानुसार व्यवहार करने को नीति कहते हैं-नीति:शास्त्रेण वर्त्तनम्। यथा अ.शा. में दुष्यन्त का यह कथन-विनीतवेषप्रवेश्यानि तपोवनानि। (6/226) ।
नीलीरागः-पूर्वराग का एक प्रकार। जो बाहर से चमक न दिखाये परन्तु हृदय में स्थित रहे, वह नीलीराग होता है-न चातिशोभते यन्नापैति प्रेम मनोगतम्। तन्नीलीरागमाख्यातं यथा श्रीरामसीतयोः।। (3/201)
नेयार्थः-एक काव्यदोष। रूढ़ि अथवा प्रयोजन के अतिरिक्त अपनी व्युत्पत्ति की असामर्थ्य से यदि कवि लक्ष्यार्थ का प्रयोग करे तो नेयार्थ दोष होता है-नेयार्थत्वं रूढ़िप्रयोजनाभावादशक्तिकृतं लक्ष्यार्थप्रकाशनम्। यथा-कमले चरणाघातं मुखं सुमुखि तेऽकरोत्। यहाँ चरणाघात से कमल को जीत लेना लक्ष्य है परन्तु इस लक्षणा का हेतु न तो रूढ़ि है, न प्रयोजन। अतः इससे कवि की अशक्ति प्रकट होती है। "सङ्ग्रामे निहताः शूरा वचोबाणत्वमागताः" यहाँ 'वचः' शब्द गी: का लक्षक है परन्तु रूढ़ि अथवा प्रयोजन न होने के कारण यह नेयार्थ का उदाहरण है। यहाँ यह दोष पदांश में है। (7/3)
न्यूनपदता-एक काव्यदोष। जहाँ कोई पद आवश्यकता से कम प्रयुक्त हो वहाँ न्यूनपदता दोष होता है। यथा-यदि मय्यर्पिता दृष्टिः किं ममेन्द्रतया तदा। यहाँ प्रथम चरण में 'त्वया' पद न्यून है।
आनन्दमग्न व्यक्ति की उक्ति में न्यूनपदता गुण ही होती है। कहीं-कहीं न यह गुणरूप होती है, न दोषरूप। यह वाक्यदोष है। (7/4)
पतत्कर्ष:-एक काव्यदोष। जहाँ काव्य का प्रकर्ष निरन्तर कम होता जाये वहाँ पतत्प्रकर्ष दोष होता है। यथा-प्रोज्ज्वलज्ज्वलनज्वालाविकटोरुसटाच्छटः। श्वासक्षिप्तकुलक्ष्माभृत्पातु वो नरकेसरी।। इस पद्य में अनुप्रास का प्रकर्ष निरन्तर कम होता हुआ अन्त में जाकर तो बिल्कुल समाप्त हो गया है। कभी-कभी यह दोष गुणरूप भी हो जाता है। यह वाक्यदोष है। (7/4)
पताका-अर्थप्रकृति का एक भेद। जो प्रासङ्गिक कथा दूर तक व्याप्त हो उसे पताका कहते हैं-व्यापि प्रासङ्गिक वृत्तं पताकेत्यभिधीयते। यथा रामचरित में सुग्रीव वे.सं. में भीम तथा अ.शा. में विदूषक की कथा। पताका का अपना नायक होता है परन्तु उसका कोई निजी फल न होता। उसकी