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निरङ्गरूपकम्
निर्वहणम् ही दोष का आभास हो जाता है, यहाँ अर्थप्रतीति के बाद उसका आभास होता है। (7/5) - निरङ्गरूपकम्-रूपक अलङ्कार का एक भेद। जहाँ किसी का साङ्गोपाङ्ग वर्णन न हो, केवल अङ्गी का ही रूपण हो–निरङ्ग केवलस्यैव रूपणम्। यह केवलनिरङ्ग तथा मालानिरङ्ग के रूप में दो प्रकार का होता है। इनके उदाहरण क्रमशः ये हैं-दासे कृतागसि भवेदुचितः प्रभूणां, पादप्रहार इति सुन्दरि नास्मि दूये। उद्यत्कठोरपुलकाङ्कुरकण्टकाग्रैः यत्खिद्यते मृदु पदं ननु सा व्यथा मे। तथा, निर्माणकौशलं धातुश्चन्द्रिका लोकचक्षुषां। क्रीडागृहमनङ्गस्य सेयमिन्दीवरेक्षणा।। (10/47)
निरर्थकम्-एक काव्यदोष। छन्दःपूरणमात्र के लिए प्रयुक्त पद निरर्थक होते हैं। यथा-मुञ्च मानं हि मानिनि। इस पंक्ति में 'हि' पद छन्दःपूर्ति मात्र के लिए प्रयुक्त हुआ है। यह पददोष है।
निरुक्ति:-एक नाट्यलक्षण। पूर्वसिद्ध अर्थ का कथन निरुक्ति कहा जाता है-पूर्वसिद्धार्थकथनं निरुक्तिरिति कीर्त्यते। इसका उदाहरण वे.सं. में भीम का 'निहताशेषकौरव्यः" इत्यादि कथन है। (6/189)
निर्णयः-निर्वहण सन्धि का एक अङ्ग। अनुभूत अर्थ के कथन को निर्णय कहते हैं-निर्णयः पुनरनुभूतार्थकथनम्। वे.सं. में भीम का-"भूमौ क्षिप्तं शरीरम्०" आदि कथन इसका उदाहरण है। (6/127)
निर्मुक्तपुनरुक्तत्वम्-एक काव्यदोष। समापित वक्तव्य का फिर से कथन करने लगना निर्मुक्तपुनरुक्तत्व नामक अर्थदोष है। यथा-लग्नं रागावृताङ्ग्या सुदृढ़मिह यथैवासि यष्ट्यारिकण्ठे, मातङ्गानामपीहोपरि परपुरुषैर्या च दृष्टा पतन्ती। तत्सक्तोऽयं न किञ्चिद्गणयति विदितं तेऽस्तु तेनास्मि दत्ता, भृत्येभ्यः श्रीनियोगाद् गदितुमिति गतेवाम्बुधिं यस्य कीर्तिः।। यहाँ 'विदितं तेऽस्तु' इसी पर यह वचन समाप्त हो चुका था, "तेनास्मि दत्ता०' आदि से उसे पुनः उपात्त किया गया है। यह अर्थदोष है। (7/5)
निर्वहणम्-सन्धि का पञ्चम भेद। बीज से युक्त तथा मुखादि सन्धियों में विकीर्ण अर्थों का एक प्रधान अर्थ में उपसंहार निर्वहण सन्धि है-बीजवन्तो मुखाद्यर्था विप्रकीर्णा यथायथम्। ऐकार्थ्यमुपनीयन्ते यत्र निर्वहणं हि तत्।।