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________________ प्रथमः परिच्छेदः १३ के परे । ( दुःशिक्षितम् ) इससे विसर्ग सहित उकार को ऊकार | नं. २६ सें शकार को सकार । ३४ सेक्ष को ख । नं. ६ से खकारद्वित्व । ७ से पूर्व ख को क आदेश | नं. २ से तकारलोप । ६२ से अनुस्वार । दूसिक्खिअं । विसर्ग के साथ ही उपसर्ग के उकार को ऊकार हो ऐसा नियम नहीं है, किन्तु प्रयोगानुरोध से योग विभाग करके यह मानना कि कहीं कहीं विना विसर्ग के भी उपसर्ग के उकार को ऊकार होता है । जैसे - सूहवा ( सुभगा ) । ' सुभगाया भवत्यत्र दुर्भगायाश्च गस्य वः' । इस इष्टि वचन से गकार को वकार । पूर्वोक्त सूत्र से विसर्ग के बिना भी उकार को दीर्घ । नं. २३ से भकार को हकार । सूहवा । जहाँ हल् परे नहीं होगा वहाँ ऊकार नहीं होगा । दुराआरो ( दुराचारः ) यहाँ आचार शब्द के आकार परे है । नं. २ से चकार का लोप, नं. ४२ से ओकार । दुराआरो इति । 'दुःसहादौ विभाषया' इस इष्टि वचन से दूसहो । पक्ष में- 'लुग्वा दुरुपसर्गस्य विसर्गस्य क्वचिद् भवेत्' इस वचन से विसर्गलोप । दुसहो ( दुःसहः ) । 'दुर्जनादिषु नेप्यते ' दुर्जनादिक शब्दों में हलपरत्व रहते भी ऊत्व, विसर्गलोप नहीं होते हैं । दुर्जनः । नं. ५ से रेफ लोप | नं. ६ से कार द्वित्व । २५ से नकार को णकार ४२ से ओकार । दुज्जणो । एवम् - (दुर्भरः ) का दुब्भरो। रेफ, लोप, द्वित्व, ओव पूर्ववत् । नं. ७ से भकार को बकार । (दुस्तरः ) लुग्वा दुरुपसर्गस्य० इससे सकार का लोप, तकारद्वित्व, ओव पूर्ववत् । दुत्तरो । नोट -- (२६) शपोः सः । ( ३४ ) करकक्षां खः । (६) शेषादेशयोद्वित्वमनादौ । ( ७ ) वर्गेषु युजः पूर्वः । (२) कगचजतदपयवां प्रायो लोपः । ( ६२ ) नपुंसके सोर्बिन्दुः । ( २३ ) खघथधभां हः । (४२) अत ओत् सोः । ( ५ ) सर्वत्र लवराम् । (२५) नो णः सर्वत्र । (ईदितः* ) ईदितः - उपसर्गे स्थितस्य आदेरिकारस्य विसर्जनीयेन सह ईकारादेशः स्यात् हलि । णीसङ्गों (निःसङ्गः) । हल् परत्वाभावान्नेह, णिरन्तरो (निरन्तरः) । 'ईदूताविदुतोः स्थाने स्यातां लक्ष्यानुरोधतः । तेन निर्धनादौ न - णिद्धणो । ( निधनः ) । णिग्गश्र (निर्गतः) । इह विसर्गाभावेऽपि स्यादेव । वीसासो ( विश्वासः ) | वीसंभो ( विश्रम्भः ) ॥ उपसर्ग में विद्यमान आदिभूत विसर्ग के सहित इकार को ईकारादेश हो हल् के परे । (निःसङ्गः ) विसर्ग के सहित इकार को ईकार । नं. २५ से नकार को णकार । नं. ४२ ओत्व' णीसङ्गो । जहाँ हल् परे नहीं होगा किन्तु अच्च् परे होगा वहाँ ईकार नहीं होगा, जैसे- 'निरन्तरः' का णिरन्तरो । साधुत्व पूर्ववत् है । यह विसर्ग सहित इकार के स्थान पर ईकार एवं पूर्वोक्त उकार को ऊकार प्रयोगानुकूल प्रचलित प्रयोग का आश्रयण करके अथवा प्राकृत भाषा में कविता करने वाले महाकवियों के प्रयोगानुकूल व्यवस्था मानना । अतः (निर्धनः ) इत्यादि में नहीं होगा। नं. २५ से णकार । ५ से रेफ लोप । ६ से द्वित्व । ७ दकार । ४२ से ओकार । णिडणो । एवम् (निर्गतः ) नं. १ से सकार लोप । अन्य कार्य पूर्वोक्त सूत्रों से जानना । णिग्गओ । कहीं कहीं विसर्ग न होने पर भी दीर्घ हो जायगा । जैसे ( विश्वासः) ईदितः से ईकार । नं. ५ * सूत्रमिद भामटीकायां नास्ति ।
SR No.091018
Book TitlePrakruta Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagganath Shastri
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size14 MB
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