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________________ २३१ एकादशः परिच्छेदः। स इति । षष्ठी के एकवचन के स-प्रत्यय के स्थान पर 'ह'यह आदेश विकल्प से होता है, उसी समय उसके साथ ही तत्पूर्ववर्ती स्वर को दी भी होता है। उदाहरणपुलिशाह धणे, अथवा पुलिशा धणे। पुलिशाह और पुलिशश्श दोनों स्थान पर 'इत्पुरुषे रोः' से रुके उकार को इकार, 'रसोलशो' से लकार। स् को प्रकृत सूत्र से हकारादेश के पक्ष में दीर्घ भी होने पर पुलिशाह । पक्षान्तर में-स्सो सः' से उस को स्स करने पर ष और स्स को 'पसोशः' से शकार करने पर पुलिशश्श-इति । धनम्को 'नो णः' से णत्व, पूर्ववत् एरव करने पर धणे सिद्ध होता है ॥२॥ अदीर्घः सम्बुद्धौ ॥ १३ ॥ अदन्तादित्येव । अदन्ताच्छब्दादकारो दीपो भवति सम्बुद्धौ। पुलिशा आगच्छ । माणुशा (२-५२ न-ण, ११-३ष%श, ५-२ जसो लोपः) आगच्छ । सम्बुद्धाविति किम् ? बम्हणश्श धणे (५-४७ सू० स्प०, शे० पुलिशश्शवत्)। ब्राह्मणस्य धनम् ॥ १३ ॥ ___ अदीर्घः सम्बुद्धौ-हस्वाकारान्तादित्येव । अस्य दीर्घः = अदीर्घः इति षष्ठीतत्पुरुषः । ह्रस्वाकारान्तस्य शब्दस्य अन्ते वर्तमानोऽकारो दीर्घो भवति सम्बुद्धौ । पुलिशा आगच्छ, माणुशा आगच्छ । = हे पुरुष ! श्रागच्छ । हे मानुष ! आगच्छ । सम्बुद्धाविति किम् ? बम्हणश्श धणे (ब्राह्मणस्य धनम् )॥ १३ ॥ ___ अदीर्घ इति । अदन्त (हस्व अकारान्त) से ही । अदीर्घः में नम्-तत्पुरुष नहीं किन्तु 'अस्य दीर्घः' इस प्रकार षष्ठीतत्पुरुष समास है। हस्व अकारान्त शब्द के अन्तिमप्रकार को सम्बुद्धि पर रहते दीर्घ होता है। हस्व अकारान्त पुरुष शब्द से तथा मानुष शब्द से सम्बुद्धि के सुपर रहते उभयत्र षकारोसरवर्ती अकार को दीर्घ अर्थात् आ हुआ तब पुरुषा, मानुषा हुआ। पूर्वोदाहरण में 'इत्पुरुषे रो' से इत्व, 'रसोलशौ' से ल, 'षसोःश' से श, पुलिशा इति । द्वितीयोदाहरण में 'णो नः सर्वत्र से णत्व तथा 'पसोः श' से सकार, माणुशा इति । सम्बुद्धी ऐसा क्यों कहा? नहीं कहते तो षष्ठी में 'बम्हशाश्म' यहाँ पर भी दीर्घ प्राप्त हो जाता । यहाँ सम्बुद्धि न होने से दीर्घ नहीं हुआ । चिट्ठस्य चिष्ठः ॥१४॥ चिट्ठस्य स्थाने चिष्ठ इत्ययमादेशो भवति । पुलिशे चिष्ठदि । (पु. लिशे व्याख्यातः,१२-१६चिट्ठस्य विष्ठः,१२.३ति-दि)। पुरुषस्तिष्ठति ॥१४॥ चिट्ठस्य चिष्ठः-चक्ष्यमाणेन 'स्थश्चिट्ठः' १२-१६ इति सूत्रेण साधितस्य चिठ्ठ-इत्यस्य स्थाने चिष्ठ इत्यादेशो भवति। पुलिओ चिष्ठदि = पुरुषस्तिष्ठति । चिष्ठदिस्याधातोः शौरसेन्यां साधितस्य चिट्ठस्य स्थानेऽनेन चिष्ठादेशे 'अनादा.' १२-३ इति सूत्रेण तीत्यस्य तकारस्य दकारः, चिष्ठदि ॥ १४ ॥ १. 'स्थश्चिट्ठ' इति साधितस्येत्यर्थः ।
SR No.091018
Book TitlePrakruta Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagganath Shastri
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size14 MB
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