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________________ नवमः परिच्छेदः । २२१ । रूप से रम्भा के सदृश । 'हरिणी मिथ तरलपेच्छिएण' । तरल- प्रेक्षण से हरिणी के सदृश । यहाँ मिवशब्द इवार्थ में है । 'हंसी विव गमणेण' । यहाँ विवशब्द इवार्थ में सादृश्य बोधक है । एवं 'सीअ ग्व सईत्तणेण' । यहाँ वशब्द इवार्थ में है । 'सेवादिषु च' से वकार को द्विस्व होगा। यहाँ कहीं कहीं प्रसङ्गानुरूप उत्प्रेक्षा भी हो सकती है। जैसे रूप से रम्भा हो । गमन से मानो हंसी ही है इत्यादि यथास्थान समझ लेना । इसी प्रकार और भी निपात हैं और वे विभिन्न अर्थों में होते हैं। जैसे- 'हन्त' यह अव्यय अनारम्भ में, क्षेप= तिरस्कार में, पश्चात्ताप कृतकार्य के संताप में, विषाद = दुःख में और निश्चय = ऐसा ही है-इसमें, विद्वानों ने इन अर्थों में हन्त अव्यय को माना है और वक्तव्य के सौन्दर्य में भी हन्तशब्द होता है । 'हे' यह संबोधन में । 'आ' यह हो गया, हो रहा है - इस अर्थ में है। 'नाम' यह ऐसा ही है इसमें और संभावना में भी होता है। हजे=चेटी के संबोधन में, हण्डे-नीच के संबोधन में, हले = सखी के संबोधन में हैं । 'ण' इवार्थ में, 'हा' खेद और संताप अर्थ में है । अलं = यह पर्याप्त अर्थ में और विषाद अर्थ में है । 'इ' यह अव्यय अपि के अर्थ में है। इसी प्रकार व-वा इत्यादिक अभ्ययों को भी जानना । च, वा, हु, हे, अहो, हंहो, जमे, आहो, हही, सिहो, अविमो, मुत्त, अह, हो-इत्यादिक चादि अव्यय हैं। आहो, अहो, उताहो, है, है, भो, भोः, इंडो-इत्यादिक संबोधन में प्रयुक्त होते हैं, क्योंकि संबोधन के बोधक हैं ॥ १६ ॥ अ आमन्त्रणे ॥ १७ ॥ अज इत्ययं शब्द आमन्त्रणे निपात्यते । अज महाणुहाव ! किं करेसि ( अज स्प०, २-४२ न् = ण, २-२७ भ = ह, प्राय इति २-२ वलोपो न । ७-२ सि, शेषं ९-१५ सू० स्पष्टम् ) । अहो महानुभाव ! किं करोषि ॥ १७ ॥ वेच' आमन्त्रणे - श्रामन्त्रणम् = आह्वानम् । तस्मिन् श्रर्थे वेच्च इत्ययं निपातो वर्तते । वेश्च देवर ! जाणसु । हे देवर ! जानीहि । श्रत्र वेचशब्दः श्रामन्त्रणार्थं द्योतयति । देश्यां पुनरयम् श्रन्यार्थेष्वपि दृश्यते । यथा- 'वैश्ववेव्वलित्रौ स्यातां वारणे तूरणे तथा ॥ १७ ॥ वेद्य-इति । वे यह निपात आमन्त्रण अर्थ में रहता है । वेश देअर ! जाणीहि । हे देवर ! आप जानिये । यहाँ आमन्त्रण अर्थ में वेद्यशब्द है । यह आमन्त्रण को सूचित करता है । वेशा यह निपात देशी में अन्य अर्थों में भो प्रयुक्त है । 'वेद्य-वेब्व'ये वारण अर्थ में और तूरण=शब्दकरना अथवा शीघ्रता में हैं ॥ १७ ॥ शेषः संस्कृतात् ॥ १८ ॥ इति श्रीवररुचिकृते प्राकृतप्रकाशे नवमः परिच्छेदः । १. 'अन्न' इति 'वेश्च' इत्यस्य स्थाने पाठो मामहवृत्तौ दृश्यते ।
SR No.091018
Book TitlePrakruta Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagganath Shastri
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size14 MB
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