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________________ २१५ नवमः परिच्छेदः हुं क्खु निश्वयवितर्कसम्भावनेषु ॥ ६ ॥ हूं, क्खु इत्येतौ निश्चयवितर्कसम्भावनेषु निपातसंज्ञकौ भवतः । हुं रक्खसो ( हुं स्प०, ३-२९ क्ष = ख, ३-५० खद्वि०, ३-५१ ख = = क्, ४ -१ ह्रस्वः, ५-१ ओ ) । गुरुओ क्खु भारो ( ५-१ ओत्वम्, अन्यत्स्पष्टम् ) । हुं राक्षसः । गुरुः खलु भारः ॥ ६ ॥ हु- क्खु निश्चयवितर्क संभावनासु' - निश्चयो = विश्वासः । वितर्कः = विमर्शः । संभावना = उस्केटैककोटिस्वरूपाशङ्कासंभावना | कार्याध्यवसायस्वरूपेत्यर्थः, एष्वर्थेषु हु, क्खु एतौ निपातौ स्तः । श्रज्ज हु दीसइ दइना । हु-निश्चयेन । श्रद्य दयिता दृश्यते । अत्र हुशब्दो निश्चयं बोधयति । एवमेव क्खुशब्दप्रयोगेऽपि । श्रख क्खु एसा मं पोइ । श्रद्य खलु एषा मां प्रलोकयेत् । अत्र क्खुशब्दः निश्चयं द्योतयति । ण हु दिट्ठो तइ अज्जवि । न हु दृष्टस्त्वयाऽद्यापि । श्रत्र हुशब्दो वितर्क द्योतयति । पेच्छ क्खु दारम्मि सो कदावि ठिप्रो होन । प्रेक्षस्व खलु द्वारे स कदापि स्थितो भविष्यति । अत्र खुशब्दो द्वारदेशस्थितिविमर्शोत्पत्तिद्योतकः । एवं हुशब्दप्रयोगः । संभावनायाम्अच्छ ताव हु णइए । आस्तां तावत् खलु नद्याः । अत्र हुशब्दो नदीपारगमनसंभा - वनां द्योतयति । खणा क्खु वच्चामि जलणिहिणो पारं । क्षणात् खलु व्रजामि जलनिधेः पारम् । अत्र क्खुशब्दः सागरपारतीरप्राप्त्यच सा यद्योतनार्थः । एवं यथायथं हु-क्खु - शब्दो निश्चयाद्यर्थ प्रकाशयतः ॥ ६ ॥ . हु-इति । निश्चयादिक अर्थों में हु, क्खु ये निपात प्रयुक्त होते हैं। निश्चय-विश्वासारमक स्थिरज्ञान । वितर्क-विमर्श । संभावना - उत्ककोटिस्वरूपा शङ्का अर्थात् शङ्कास्पद कार्याध्यवसायस्वरूपज्ञान । अज्ज हु दीसह दइआ । हु निश्चयेन अद्य दयिता दृश्यते । यहाँ हुशब्द निश्श्रय को द्योतित करता है। इसी प्रकार क्खु ( खलु ) शब्द के प्रयोग में भी जानना । अज क्खु एसा मं पलोएइ । आज वह मुझे देखेगी । यहाँ निश्चय को खलुशब्द बोधित करता है । ण हु दिट्ठो तह अज्ज वि । आज भी नहीं देख पड़ा। यहाँ हुशब्द वितर्क को प्रकाशित करता है । एवं क्खु शब्द के प्रयोग में-पेच्छुक्खु दारम्मि सो कदावि ठिओ होज । देखो कदाचित् वह दरवाजे पर स्थित होगा । यहाँ क्खुशब्द द्वार पर ठहरने के विमर्श को बोधित करता है। संभावना में हु शब्द -अच्छ ताव हु णइए। संभवतः नदी के पार होगा। यहाँ हुशब्द नदी के पार जाने की संभावना को कहता है । क्खुशब्द-खणा क्खु भवामि जलणिहिणो पारं । क्षणमात्र में मैं समुद्र के पार आता हूँ। यहाँ क्खुशब्द समुद्र के पार जाने के उद्योगसाहस से पार-प्राप्ति-सिद्धि संभावना को सूचित करता है। इसी तरह अन्यत्र भी -शब्द पूर्वोक निम्रयादिक अर्थों को यथास्थान प्रकाशित करते हैं ॥ ६ ॥ णवरः केवले ॥ ७ ॥ १. अयं पाठः संजीवन्यादिसंगतः । नेदं सूत्रं संजीवन्यादौ ।
SR No.091018
Book TitlePrakruta Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagganath Shastri
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size14 MB
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