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________________ अष्टमः परिच्छेदः। २०१ विलम्बते । छुहा, पर में खिवह। 'कस्को ख' से खादेश । 'पोक सेवा'शेषाणामदन्तता' से अदन्तता। खिवह। पिपति । भावकर्म में भी ये आदेश होते हैं। दीसह, दृश्यते। विठप्पड़, अज्यंते । आपूर्वक रम् धातु को आठप्प आदेश । आढप्पइ, आरभ्यते । क्वा-प्रत्यय के परे भी ये आदेश होंगे। स्था धातु को थक आदेश । थकिऊण, स्थित्वा। अथवा विपूर्वक लबिधातु को थकादेश। थकिउण। विलम्ब्येत्यर्थः । छुहिउण, विश्वा । दकिजण, स्थगयित्वा । तप्रत्यय में भी ये आदेश होंगे। गुपधातु को लूम आदेश । 'के' सूत्र से इकार । 'कगचज.' से तकारलोप । लूमिअं, गोपायितम् । महिलं, वान्छितम् । ढकि, स्थगितम् । प्रपूर्वक हिधातु को पिणुव आदेश । साधुत्व पूर्ववत् । पिणुविरं। सदानन्द पण्णव आदेश मानते हैं, अतः उनके मत से पण्णविरं । प्रहितम् । इसी प्रकार दूसरे प्रत्ययों के संयोग में भी आदेशों की कल्पना कर लेना। कोई-कोई आचार्य 'एवमन्येऽपि' सूत्र में क्रियापद की व्याख्या करके क्रिया को ही आदेश मानते हैं, यह ठीक नहीं है, क्योंकि अक्रियापद को भी भादेश विधान है, इसी प्रकार के उदाहरण हैं। ननु प्रभ यह होता है कि यदि 'एवमन्येऽपि' से सब प्रकार के आदेश हो जायेंगे तो 'केन दिण्णादयः' यह सूत्र व्यर्थ हो जायगा ? उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि 'केन दिण्णादयः' इस सूत्र में 'केन' यहाँ सहार्य में तृतीया है, तो यह अर्थ होता है कि प्रत्यय के सहित दाधातु को दिण्ण आदेश हो । तो यहाँ केवल धातु को आदेश कहे हैं और वहाँ तप्रत्ययसहित को। इस प्रकार अनर्थकस्व की शङ्का नहीं हो सकती॥ शेषाणामदन्तता ॥ ७१ ॥ इति श्रीवररुचिकृतेषु सूत्रेष्वष्टमः परिच्छेदः । शेषाणां लुप्तानुबन्धानामदन्तता भवति । भमइ । चुम्बई ॥ ७१ ॥ [एवमन्येऽपि कियाशब्दादेशा झेयाः । यथा-मृजेः जामइ, पिबतेः पाडा]। इति श्रीमामहविरचितायां मनोरमाव्याख्यायां धात्वादेशपरिच्छेदोऽष्टमः ॥ १. भ्रमति । चुम्मति। २.[ ] अयं पाठो न सार्वत्रिकः। ३. अत्र प्रकरणान्ते ग्रन्थान्तरेभ्य आवश्यकतया धातुविहितप्रत्ययादेशा धात्वादेशाश्वोल्लिख्यन्ते संक्षेपेण । तत्र पूर्व धातुविहितप्रत्ययाऽऽदेशाः___ सिनास्तेः सिः ।८।३।१४६ सिना दितीयत्रिकादेशेन सह अस्तेः सिरादेशो भवति । निहुरो जंसि । सिनेति किम् ? से भादेशे सति-अत्यि तुमं। - गुर्वादेरविवा ।८२।१५०। गुर्वादणेः स्थाने अवि इत्यादेशो वा भवति । शोषितम् =सोसविसं, सोसिमं । तोषितम् = तोसविलं, तोसि । भ्रमेराडो वा ।८।३।१५। अमेः परस्य गेराड आदेशो वा भवति । ममाडेइ । पक्षे-मामेह, . भमावइ, ममावेह । (भ्रमयति)। दु-म-मु विध्यादिग्वेकस्मिन्बयाणाम् ।८।३।१७३। विध्यादिष्वर्थेषूत्पन्नानामेकत्वेऽर्थे वर्तमानानां त्रयाणामपि त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं दु, म, मु इत्येते आदेशा भवन्ति । इसउ सा। हससु तुमं । हसामु भई । दकारोच्चारणं भाषान्तरार्थम् ।
SR No.091018
Book TitlePrakruta Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagganath Shastri
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size14 MB
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