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अष्टमः परिच्छेदः ।
१६३ ऊण जेऊण । जित्वा । लुणिश्रव्वं, लवितव्यम् । 'इवादिभ्य इतरस्यापि णोऽन्ते क्वचन दृश्यते' । थुणइ, स्तौति । धुणिऊण, स्तुत्वा ॥ ५६ ॥
श्रुहु-इति । श्रु-हु-जि-लू-धू इन पाँच धातुओं के अन्त्य वर्ण के आगे णकार का प्रयोग हो और दीर्घ धातु को अर्थात् लू धू धातुओं को ह्रस्व हो । श्रु धातु सुनने के अर्थ में है । सुइ । शृणोति । सुनता है। हु धातु देने और लेने के अर्थ में हैं । हुणइ । जुहोति । जि-जीतने के अर्थ में। जिइ । पक्ष में जअइ । 'एवमन्येऽपि' से जि को जअ आदेश । जयति । लू धातु छेदन- अन्नादि-पौधों के काटने में है। धातु के अन्त 'ण', पूर्व को हस्व । 'लादेशे वा' से एकार। लुणेह, लुणइ । लुनाति । इसी प्रकार धुणे, धुणइ । धूनाति । 'श्रवादीनामिति' । श्रु-इत्यादिक उक्त पाँच धातुओं से विहित जो कारागम है. वह कहीं विकल्प से होता है। श्रुधातु से क्त्वाप्रत्यय । 'क्त्वा तूण' सेतू । उक्त वार्तिक से विकल्प से ण । 'सर्वत्र लवराम्' से रेफलोप । 'ए च क्त्वा०' से इकार । सुणिऊण | पक्ष में- 'अडादेशा बहुलम्' से उकार को ओकार । सोऊन । इसी प्रकार जिणिऊण, जेऊण-भी होंगे। लुणिभग्वं में लू धातु, तव्य प्रत्यय । उक्त सूत्र से णकारागम, पूर्व को हस्व । 'ए च क्वा०' से इकार । 'कगचज०' से तलोप | 'अधो मनयाम्' से थलोप | 'शेषादेशयो०' से वकार - द्वित्व | 'मो बिन्दु:' से बिन्दु | लुणिग्वं । श्रवादिभ्य इति । श्रु-इत्यादिक धातुओं से अतिरिक्त भी कहीं धातु के अन्त में ण होता है । स्तु धातु । णकारागम । 'स्तस्य थः' से थकार । थुइ, थुणिऊण । पूर्ववत् ॥ ५६ ॥
भावकर्मणोर्व्वश्च ॥ ५७ ॥
एषां भावकर्मणोरन्त्ये व्व-शब्दः प्रयोक्तव्यः, चकारात् णश्च । सुव्वइ ( २-४३ श्= स, ३-३ रलोपः व्वप्रयोगे, संयोगे ८।८।२२७ हेम० हस्व०, ७-१ ति = इ ) । सुणिजइ ( ८-५६ णत्वे ह्रस्वे च कृते, ७-३३ अ = इ, इति सुण- इ = सुणि जाते, ७-२१ धातुप्रत्यययोर्मध्ये ज्ज, ७-१ त = इ ) । हुव्वाइ, हुणिजइ । जिव्वर, जिणिजइ । लुव्वर, लुणिज्जइ । धुवर, धुणिज्जर' (पूर्ववत् सर्वेषां सिद्धिर्ज्ञेया ) ॥ ५७ ॥
भावकर्मणोर्व्वश्व-भावे कर्मणि चार्थे श्रवादीनां धातूनामन्ते कृतद्वित्वो 'व्व' इति भवति । चकारात् पूर्वसूत्रोक्तो णकारश्च । सुव्वइ । पक्षे - सुणिइ सुणिजइ । श्रूयते । हुव्वर, हुणिश्रइ, हुणिज्जइ । हूयते । जिव्वर, जिणि इ, जिणिज्जइ । जीयते । लुव्वर, लुणिश्रइ. लुणिज्जइ । लूयते । धुव्वइ, धुणिश्रड्, धुणिज्जइ । धूयते ॥ ५७ ॥
भावेति । भाव और कर्म में श्रु इत्यादिक धातुओं के अन्त में द्वित्व- वकार का अर्थात् 'ब्व' इसका आगम हो । सुग्वइ । 'सवत्र लवराम' से रेफलोप । 'ततिपोο' से इकार । सुब्बई | पक्ष में 'यक इअइज्जौ' से इअइज । 'क्वचिदपि लोपः' से णकाराकार का लोप । रेफलोप। शकार को मकार । त को इकार । पूर्वोक्त के सदृश होंगे । सुणिअइ, सुणिजइ । श्रूयते । इसी प्रकार सर्वत्र जानना । लू और धू धातु में हस्व
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१. श्रूयते - हूयते - जीयते -लूयते -धूयते ।
१३ प्रा. प्र.