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प्राकृत प्रकाशे
को आकार मानते हैं । अतः हस्धातु के आदिस्थ अकार को आकार हो जायगा । हासाविओ । अन्य कार्य पूर्ववत् । एवं काराविओ, पाढाविओ इत्यादिकों में भी जानना | भावे-इति । अकर्मक धातु से भाव में और सकर्मक से कर्म में उक्त सूत्र से णिचप्रत्यय को विकल्प से आवि आदेश । 'अडादेशा बहुलम्' इससे मध्य में अटू का आगम, टकार इत् । 'ततिपोरिदेतौ' इससे तिपू को अथवा त-प्रत्यय को इकार, चोराविइ । और जहाँ पर 'मध्ये च' इससे ज-विकरण होगा वहाँ अट् नहीं, किन्तु ज-विकरण विकल्प से होगा । अन्य कार्य पूर्ववत् । चोराविजइ । एवम् चिन्ताविअइ, चिन्ताविज्जद्द में भी जानना । धृधातु मे कर्म में तिप् । णिच्, उसको आवि आदेश । अर, आदिस्थ अकार को आकार । अडागम । यक्प्रत्यय को इय्, संधिकार्य, धाराविजइ । पक्ष में- जहाँ आवि नहीं होगा, वहाँ चोरिअह 'यक इयइज्जौ' ६६८ से इय इज्ज आदेश होंगे। चोरिअइ, चोरिजइ । एवं चितिअइ, चिन्तिजइ । धारिअइ धारिजइ । साधुत्व सर्वत्र पूर्ववत् होगा । स्वपधातु से भाव में तिबादिक, 'आविः कभावकर्म० ' इससे णिच् के स्थान में आवि आदेश । 'शकादीनां द्वित्वम्' ७/५६ से तकार को द्वित्व | 'यक अइजो' इससे यक् को इअ आदेश । 'सन्धौ अज्लोप० ' इससे इकारलोप | अन्य कार्य पूर्ववत् । सुप्पाविअइ, एवं सुप्पाविज्जइ । पत्र में जहाँ आवि आदेश नहीं होगा, वहाँ सुप्पिअइ, सुप्पिज्जइ । साधुत्व पूर्ववत् । आहुरिति । तुर धातु से णिच् । कोई आचार्य णिच् के स्थान में ओकार और आवि दोनों कार्य मानते हैं। 'सन्धौ अज्लोप०' से आवि के आकार का लोप । तुरोविअं । पक्ष में- तुरिअं : रुषादित्व से दीर्घ- तूरिअं । जो वसन्तराजकृत सञ्जीविनीटीका में त्वरधातु का 'तुरिअं ' माना है, वह भ्रममूलक है । क्योंकि 'स्वरस्तुवरः' ७ ४ सूत्र में स्पष्ट ही सन्देह किया है, 'कथं तर्हि तुरिअं ? तुर स्वरणे इत्यस्य ज्ञेयम् ।' इससे स्पष्ट है - यहाँ तुर धातु हैं । ओरव आदेश लक्ष्यानुरोध से जानना । यह ओत्वादेश अत्यन्त क्वाचित्क है ॥ २८ ॥ नैदावे ॥ २६ ॥
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तभावकर्मसु णिच्प्रत्ययस्य पत् आवे इत्येतावादेशौ न भवतः । कारिअं ( णिचि = कारि, २-२ तलोपः, ५ - ३० बिं० ) । कराविअं (७-२८ सूत्रे द्रष्टव्यम्) । कारिजई। काराविज्जई (७-२७ सूत्रात् चकारानुकर्षणात्, पक्षे- तत्पूर्वसूत्रानुसारं धातोरादेरकारस्यात्वं भवति, शेषं ७-२८ सू० द्रष्टव्यम् ) ।। २९ ।।
नैदावे -प्रत्यये भावे कर्मणि चार्थे णिचः ए, आवे इत्यादेशौ न स्तः । हसावित्र्इ, हसाविज्जइ । 'णिच एदादेरात्' ६।२६ इति आदेः श्रत्वम् । हासि इ, हासिज्जइ । पूर्ववत् ॥ २९ ॥
नैदावे इति । कप्रत्यय के परे एवं भाव-कर्म में तिङादिकों के विषय में ए और आवे आदेश नहीं होते हैं। हस् धातु से भाव में तिप्, णिच्, 'आविः क्त भाव० ' इससे आवि । 'यक इअइज्जौ' से इय इज आदेश । 'णिच एदा०' से एकार आकार प्राप्त था, परंतु उक्त सूत्र से एकार का निषेध होगा, वैकाल्पिक आकार होगा ही । अतः हसाविभद्द, हसाविज्जइ । पक्ष में- हासिअह, हासिज्जइ । पूर्व प्रयोग में आरव करने पर हासाविभइ, हासाविज्जह होंगे। साधुत्व प्रथम सूत्र में दिखा आये हैं ॥ २९ ॥