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सप्तमः परिच्छेदः। बहुवचन में एते जानन्ति । त्वं जानासि, यूयं जानीथ के स्थान में भी जानना । साधुत्व मूल में सबका प्रदर्शित है। आत्मनेपद में भी इसी प्रकार आदेश और साधुत्व जानना। एसो णखावेज, णचावेज्जा । पर में-णचावेहिइ होगा। अनद्यतन-भविष्यत् काल में उक्त ज, ज्जा आदेश पक्ष में हि-विकरण है। एष नर्तयिता। वह कल नचावेगा। साधुत्व प्रयोगों का मूल में स्फुट है। क्रियातिपत्तीति । क्रिया के अतिपत्तिकाल में अर्थात् यदि यह कार्य हो तो यह भी कार्य (क्रिया) हो जायगा । जैसे यदि भोजन करेगा तो तृप्त हो जायगा। यहाँ भोजन के साथ तृप्ति का हेतुहेतुमद्भाव है। भुज पालनाभ्यवहारयोः । भुधातु को भुज आदेश। 'लादेशे वा' ६३४ इससे एकार । भुजेज । इस प्रकार से जहाँ जा आदेश, वहाँ भुजेजा होगा। तृप प्रीणने। प्रीणन का . अर्थ तृप्त होना । 'तृपः थिप्पः' ७११८ इससे थिप्प आदेश । अन्य कार्य पूर्ववत् जानना। लस्य क्रियेति । लकार की क्रियातिपत्ति में अर्थात् पूर्वोक्त लुकादिक के विषय में ल के स्थान पर न्त-माण ये भी आदेश होते हैं। जैसे-जइ भुजन्तो भुजमाणो वा, ता तिप्पन्तो तिप्पमाणो वा । साधुत्व पूर्ववत् जानना । 'अत ओत् सोः' ५११ से ओकार । जहि जो इति। विध्यादिक अर्थों में अर्थात् लोटलिङादिक के विषय में लकार के स्थान में कहीं कहीं जहि, ज आदेश विकल्प से होते हैं। जैसे कृधातु । 'कृञः कुण च' ७.१० इससे कुण आदेश । अकार को एकार । कुजहि । कुगेज । पक्ष में कुणउ-करोतु। सभी लोट-लिङ् इत्यादिक लकारों में सभा वचनों में अर्थात् एकवचन, बहुवचन में और सभी पुरुषों में प्रथमपुरुष, मध्यमपुरुष, उत्तमपुरुष में समानरूप होंगे, क्योंकि लकार को ही जहि ज आदेश हो जाते हैं। पवे-हिश्चेति । धातुओं को लूटलकार में कर्म में प्रत्यय करने पर जहि ज के साथ अर्थात् पर में 'हि' भी होता है। मए सो सुमरिजिहिह । स्मृधातु 'स्मरतेभरसुमरौ' ७१५ इससे सुमर आदेश । 'ततिपोरिदेती' से इकारादेश । 'यक इअइज्जो' ६८ से यविकरण को इज आदेश । 'सन्धी अज्लोप०' ४१ से धारवादेश के अकार का लोप । इज के अकार को 'ए च क्वा' ६०३३ से इकारादेश। सुमरिजिहिइ । मया स स्मरिष्यते । एवम्-मए तुमं सुमरि. जिहिसि । 'सिपथासोः सिसे' वार से सि आदेश, अन्य कार्य पूर्ववत् । मया त्वं स्मरिष्यसे । तुए हं सुमरिजिहिमि । 'इण्मिपोर्मिः' ६३ से मि आदेश, अन्य कार्य पूर्ववत् । स्वया अहं स्मरिष्ये । बहुवचन में भी साधुस्व पूर्ववत् जानना ॥२०॥
मध्ये च ॥ २१ ॥ वर्तमानमविष्यदनद्यतनयोर्विध्यादिषु च धातुप्रत्यययोर्मध्ये ज जा इत्येतावादेशौ वा भवतः । वर्तमाने-होजा, होजाइ । पक्षे-यथाप्राप्तम् । विध्यादिषु-होजउ, होजाउ (विकरणस्थाने अत्रादेशौ बोध्यौ, शे० स्पष्टम् )। भवेदित्यादि ॥२१॥
मध्ये च-तिबादीनां धातूनां च मध्ये ज जा इति विकरणौ वा स्तः। पूर्वसूत्रेण तिवादीनां न वा इति विधीयते। इह तु विकरणौ इति भेदः । पक्षे यथाप्राप्तम् । देजह, देज्जाइ, देज, देना, देइ । ददाति, दत्ते इति । 'एकाचां मिमयोर्मध्ये न लक्ष्यवशाद् भवेत् । तत्र प्रायः ज एव । ते देवन्ति । ददति, ददते वा । भूधातोः