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________________ षष्ठः परिच्छेदः। १४१ कचिदिति । तादर्थ्य में विहित चतुर्थी को षष्ठी नहीं होगी। जैसे 'धराम दारु यहाँ 'गृहस्य घरोऽपती' (४+३४) से घर आदेश, 'कगचज.' (नं.१)से यलोप, घराअ होगा। षष्ठी नहीं हुई। 'कचित् ग्रहण से बहुतों के तादर्थ्य में निषेध नहीं होगा, किन्तु षष्ठी ही होगी। जैसे देवाणं बली । देवेभ्यः बलिः प्राप्त था। वस्तुतः प्रकृति-विकृतिभाव में ही तादर्य यहाँ माना गया है, अत एव पाणिनि ने 'चतुर्थी तदर्थार्थ' सूत्र में बलिहित-इत्यादि पृथक् पढ़े हैं, और जहाँ प्रकृति की विकृति नहीं है, वहाँ षष्ठी ही होगी। जैसे 'अश्वस्य घासः' यही होगा, 'अश्वाय घासः' नहीं होगा। क्योंकि यहाँ प्रकृति-विकृतिभाव नहीं है। परन्तु अनुभूतिस्वरूपाचार्यादि जो तदर्थमात्र में तादी मानते हैं उनके यहाँ अश्वेभ्यः, अथवा अश्वाय घासः यही होगा। उसी ग्यापक तादर्थ्य को लेकर यह सूत्र है । अस्तु, 'व्यत्ययोऽप्यासाम्' इन विभक्तियों का व्यत्यय भी होता है अर्थात् अन्य विभक्ति के अर्थ में अन्य विभक्ति। जैसे 'अच्छीसु पिअसि' अतिभ्यां यह करण पीने का है, अतः तृतीया प्राप्त थी, सप्तमी हो गई। रति दिहो। यहाँ रात्री इस सप्तमी के स्थान में द्वितीया हो गई। एवं वीप्साद्विरुक्ति में भी पूरे पद को हित्व न होकर केवल पदांश को ही द्वित्व हो जायगा । जैसे अङ्गानि का अगाइं होता है, वीप्सा में अंगाई को द्वित्व प्राप्त था, परन्तु अंग-पद को द्वित्व और अनुस्वार । अंगमंगाई। एवम्-अङ्गानाम्-अङ्गानाम् का अंगमंगाणं । अङ्गेषु अङ्गेषु का अंगमंगेसु होगा। एवं धातुओं में भी कहीं अवयवमात्र को द्वित्व होगा। जैसे 'प्रजत' को द्वित्व प्राप्त था। ब्रज को व आदेश । त को हकार । वञ्चह को द्वित्व प्राप्त था, किंतु केवल वध को द्वित्व हुआ। 'वच वह' हुआ। एवं भवति का होइ सिद्ध होता है। भवति को वीप्सा में द्वित्व होने पर जैसे भवति भवति होता है वैसे ही होह को भी द्वित्व प्राप्त था, किन्तु हो मात्र को द्विस्व हुआ, अतः हो होइ सिद्ध होगा। परन्तु यह काचिक नियम है, सार्वत्रिक नहीं। अतः 'चिनोतु' का वीप्सा में चिणउ-चिण होगा। इति ॥ इति श्री म. म. मथुराप्रसादकृते लोकभाषानुवादे षष्ठः परिच्छेदः ।
SR No.091018
Book TitlePrakruta Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagganath Shastri
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size14 MB
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