SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Hindisio प्रकृत पुस्तक अर्थात् वररुचि-सूत्र एवं भामहवृत्ति-मनोरमा के प्रकाशन का आधारश्री स्वराल महोदय की 'प्रास्तावना' से बात होता है कि वाराणसेय राजकीय संस्कृत पुस्तकालय-सरस्वती भवन की हस्तलिखित दो पुस्तकें है। प्रस्तुत संकरण का आधार उपयुक्त महाशय द्वारा संपादित पुस्तक ही है तथा नवीन व्याख्याओं का सम्म स्वयं व्याख्याकार-लिखित पुस्तक है। अत एव इस विषय में विशेष चर्चा की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। 'प्राकृत-प्रकाश' इस पद में प्राकृत शब्द का अर्थ क्या है ? इसमें विद्वानों के दो मत मालूम पड़ते हैं। प्रथम मत:-प्रकृति अर्थात् प्रजागण, तत्सम्बन्धी अर्थात् उनके पारस्परिक व्यवहार या बोल-चाल में आने वाली भाषा प्राकृत पद का अर्थ है। उन्हींके सिद्धान्तानुसार व्याकरण के नियमों से संस्कार पाकर शुद्ध व सुन्दर बनी भाषा संस्कृत' नाम धारण करती है। द्वितीय मत:-प्राचीन समय, वैदिककाल से उपयुक्त होने वाली भाषा अर्थात् संस्कृत ही प्रकृति अर्थात् मूल भाषा है और उससे आई या बनी रूपान्तर को प्राप्त होने वाली भाषा प्राकृत है। पूर्वोत्तर मतों में कोई भी मत ग्राह्य माना जाय, तो 'प्राकृत' यह नाम एक भाषा का है जिसके अनेक भेद उपलब्ध हैं। उस प्राकृत भाषा के शब्दों के साधुत्व को प्रकाश करने वाला यह ग्रन्थ अपने 'प्राकृत-प्रकाश' नाम को सार्थक बना रहा है। इस प्राकृत भाषा के सिद्धान्तों को सूत्ररूप में निर्मित करने वालों में वररुचि, वाल्मीकि, हेमचन्द्र एवं त्रिविक्रमदेव के नाम संमुख आते हैं। उनमें वररुचि तथा हेमचन्द्र को सूत्रकर्ता मानने में कोई वाद-विवाद नहीं। त्रिविक्रम देव के सम्बन्ध में एक मत है कि सूत्र एवं वृत्ति दोनों उनकी हैं और दूसरा मत है कि वाल्मीकि के सूत्रों पर इनकी व्याख्या है तथा तृतीय मत इस प्रकार है कि हेमचन्द्रप्रणीत सूत्रों पर इन्होंने व्याख्या की है। बहुत से विद्वान् आदिकवि वाल्मीकि-कृत सूत्र मानने में पुष्ट प्रमाण के अभाव में सहमत नहीं हैं। परन्तु षड्भाषाचन्द्रिकाकार १६वीं शताब्दी के विद्वान् श्री लक्ष्मीधर अपने ग्रन्यारम्भ के पचों द्वारा श्री बाल्मीकि आदिकवि को ही सूत्र-निर्माता स्वीकार करते हैं और प्रमाणों से यदि यह बात सिद्ध हो तो हमलोगों को भी कोई आपत्ति नहीं है। इस ग्रन्थ में भामहवृत्त्यनुसार बारह परिच्छेदों के सूत्रों की पूर्ण संख्या ४८७ है तथा चन्द्रिका-टीकानुसार २२ सूत्र अधिक हैं। किन्तु ऊपर लिखी संख्या में से ९ सूत्रों की चन्द्रिका में उपेक्षा कर व्याख्या नहीं की गई है । अतः उनके मत से ५०० सूत्र हैं। एवं पूर्ण योग ५०९ सूत्रों का है । अस्तु, प्राकृतप्रकाश की ४ प्राचीन टोकाएँ हैं, यथा-१ मनोरमा, २ प्राकृतमारी, ३ प्राकृतसंजीवनी तथा ४ सुबोधिनी । उनमें मनोरमा प्राचीनतम है जिसके रचयिता भामह हैं । वररुचि के समान भामह के सम्बन्ध में ऐतिहासिक सामग्री के अभाव में परिचय कराना अशक्य-सा हो रहा है। दूसरी टीका प्राकृतमजरी पचात्मक नवम परिच्छेदान्त तक ही है जिसके निर्माता श्री कात्यायन नामक विद्वान् हैं । वे कौन थे? किस समय में थे? इत्यादि भी अस्पष्ट है, जैसा कि पूर्व के सम्बन्ध में । तीसरी टीका प्राकृतसभीवनी नामक है। यह भी नवम परिच्छेदान्त ही है। इसके रचयिता श्री वसन्तराज हैं। इनका परिचय भी पूर्ववती व्याख्याकारों के समान दुर्लभ है। एवं चौथी टीका श्रीसदानन्दनिर्मित मुबोधिनी है, जो नवम परिच्छेद के नवम सूत्र की समाप्ति के साथ समाप्त हुई है। अन्तिम दोनों टोकाएँ वाराणसी के सरस्वतीभवन से 'सरस्वतीमवन-ग्रन्थमाला' के १९३ पुष्प के दो भागों में प्रकाशित हुई हैं। nianARDASTI
SR No.091018
Book TitlePrakruta Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagganath Shastri
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy