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________________ भूमिका श्री परमात्मा के अनुग्रह से और मातृभूमि भारतवर्ष के सुपुत्रों के अथक प्रयत्लों से हमारा देश भारतवर्ष इस समय एक स्वतन्त्र राष्ट्र है, जिसके प्रधान नेता माननीय श्री जवाहरलाल नेहरू जी तथा राष्ट्रपति देशरक्ष डॉ० श्री राजेन्द्रप्रसाद जी हैं। ऐसे स्वतन्त्र राष्ट्र में प्रसिद्ध होनेवाली संस्कृत पुस्तकों में भी राष्ट्रियता की झलक आवश्यक है। अत एव उनका राष्ट्रभाषा में अनुवाद होना भी न्यायसङ्गत है। संस्कृत पुस्तकों की भूमिका संस्कृतशों के लिये संस्कृत में अवश्य उपादेय है। इसी प्रकार राष्ट्रमाषा हिन्दी में मी उसका होना उचित प्रतीत होता है। जैसा कि आंग्लशासनकाल में अधिकतर विद्वान् अंग्रेजी में ही सब कुछ लिखते थे। किन्तु वह समय लद गया। अब अपने देश की राष्ट्रभाषा में उसकी जननी संस्कृत भाषा के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी में भी सब कार्य होने चाहिए-ऐसी इस तुच्छ लेखक की धारणा है। इसके पूर्व भी कभी-कभी छोटी-मोटी पुस्तकों में इस लेखक द्वारा वैसा प्रयत्न किया गया है। अत एव आज भी यह प्रयन किया जा रहा है तो उससे किसीको भी अरुचि न होनी चाहिए । प्रकृत विषय की ओर मुड रहे हैं। श्री वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश का चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी से यह चतुर्थ संस्करण प्रकाशित हो रहा है। इसके पूर्व अनेक उपकरणों से सुसज्जित केवल श्री भामहकृत मनोरमा नामक संस्कृत टीका के साथ इसका प्रकाशन हुआ था, जो भी उदयराम शास्त्री डबराल महाशय दारा परीक्ष्य छात्रोपयोगी बनाया गया था। किन्तु समय के परिवर्तन के साथ उसमें भी परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत होने लगी। ऐसे अवसर पर दूरदशी म० म०पं० मधुराप्रसाद दीक्षित जी ने 'चन्द्रिका' नामक एक नई संस्कृत टीका और 'प्रदीप' नामक सरल हिन्दा टीका लिखकर उसकी पूर्ति कर दी। उन टीकाओं के साथ यह पुस्तक कितनी उपादेय है-यह पाठकों के निर्णय के ही अधीन है। यह टीका संजीवनी और मुबोधिनी की अनुगामिनी होने से अष्टम (भामहानुसार नबम) परिच्छेद के अन्त तक ही है। अनुगामिनी होने पर भी यह समालोचिका भी है-यह विशेष स्थलों के निरीक्षण से स्पष्ट हो जायगा। अस्तु, दशम से दादश तक तीन परिच्छेदों की टीका न होने से अध्यक्ष महोदय को सूचित किया गया। उन्हींके कथनानुसार यह संपादन कार्य मुझे सौंपा गया था और मैंने मी सरस्वती सेवा के नाते इसे सहर्ष स्वीकार भी किया था। अतः उन्हींकी इच्छानुसार शेष भाग की टीका रचने का मार भी संपादक के ऊपर ही माया। आधारान्तर के अभाव में भामहवृत्त्यनुसार ही चन्द्रिकादि की शैली पर नई संस्कृत एवं हिन्दी टीका लिखकर पूर्ति की गई। अत एव उसका नाम भी चन्द्रिकापूरणी रखा गया। विद्वंगण इसकी आलोचना स्वयं करेंगे।
SR No.091018
Book TitlePrakruta Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagganath Shastri
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size14 MB
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