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________________ चतुर्थः परिच्छेदः। १०५ सुप्पी । वधू को-आउज्झा। भ्रमित को-भामिअ होते हैं। एवम्-दुहित को-धूआ। आकृष्ट को-आअद्वि। श्वश्र को-अत्ता। लेलिहान को-लल्लक होगा। मण्डली कोविचिल्लिय, समय को-अच्छुक, इदानी को एण्हि, निलय को-निहेलण-आदेश होते हैं । श्मशानशब्द को कडसी, उभय को अवहो, पार्श्व को पास होता है । लोक में पार्श्व के अर्थ में 'आस-पास' का प्रयोग होता है। उत्पल को कंदोड, कौतूहल को कोड होता है। लज्जावती को लजालुइणी तथा शालिवाहन को हाल और शालाहण दो आदेश होते हैं । गोदावरी को गोला आदेश होता है । ये नित्य होते हैं। और पूर्वोक्त पाक्षिक भी हैं। जैसे-अधः का हेडं होगा और ध को ह करने से अहो भी होगा, एवम् वैदूर्य का वेरुल्लिअं होगा और 'य' को जकारादेश, द्वित्व, दू को हस्व उकार, ऐ को ए करने से वेदुजअंभी होगा। एवं शुक्ति का सुप्पी और कलोप, द्वित्व, त और सकार करने पर सुत्ती भी होगा। इस प्रकार यथानुकूल प्रयोग कर सकते हैं। मातृष्वस और पितृष्वस शब्द के अकार को इकार हो और इकार से पर सकार का लोप हो। (मातृष्वस) 'कगचज.' से तलोप । 'उहत्वादिषु' से उकार । 'सर्वत्र लवराम्' से वलोप । उक्त निपात से स्व के अकार को इकार । उससे पर 'सृ'गत सकार का लोप । माउसिआ, एवम् पिउसिआ। 'भदातो यथा० से हस्व करने से स्त्रीलिङ्ग में ई-प्रत्यय अन्त में करने से मउसी, इति । पक्ष में-स्वस को छ आदेश निपात से होता है । माउछा, पिउछा। 'दाढादयः' इसमें आदिपद के ग्रहण से लोकव्यवहार में प्रसिद्ध, महाकविप्रयुक्त उनको भी प्रत्यय,लोप, आगम, वर्णविकार आदि की कल्पना से साधु बना लेना। इस प्रकार तीन स्वरूप में प्राकृत विभक्त होता है। (१) अनुकारी। . (२) विकारी । (३) देशी। .. (१) जो शब्द संस्कृतशब्द के समान है, केवल सुप्-तिडादि-प्रत्यय-कृत भेद है, वह अनुकारी है। क्योंकि संस्कृतशब्द के समान है। उसमें ऐसे अक्षर नहीं होते हैं, जिनका आदेशादिजन्य परिवर्तन होता हो। वे शब्द संस्कृताभिज्ञ विद्वानों को सुगम हैं। (२)दूसरे विकारी होते हैं, जिनके अक्षरों में आदेशजन्य विकार हो जाने से साधारणतया शब्दस्वरूप की प्रतीति नहीं होती है। परन्तु वाक्य में अनेक प्रातिपदिक. शब्दगत वर्ण रहते हैं, अतः उनमें विकार हो जाने से प्रातिपदिक शब्द का ज्ञान दुरूह हो जाता है। जैसे-रश्मयः का रस्सओ। विक्लवः का विकओ इत्यादि। और वाक्य में तिङन्त क्रियावाचक शब्द एक ही रहता है, उसकी प्रतीति प्रकरण से तथा अन्य शब्दों की सविधि से हो जायगी। अतः प्रातिपदिक शब्द किन-किन विकारों में होकर किस प्रकार के प्राकृत शब्दस्वरूप में परिवर्तित हुआ है यह जानना परमावश्यक है। यह प्राकृत शब्द देखने से शीघ्र साधारणतया नहीं प्रतीत होता है । इसके जानने के लिये मैंने केवल अट्ठाईस सूत्र प्राकृतप्रकाश से निकाले हैं, जिनसे जैनों के प्राकृत में कहे हुये समस्त आगम-ग्रन्थ और नाटकों में कहा हुआ अधमपात्रगत तथा स्त्रीपात्रादिगत प्राकृत का परिज्ञान हो जाता है। ये अट्ठाईस सूत्र व्यापकरूप से और बाईस सूत्र और हैं जो कि असाधारण प्रयोगों का भी परिज्ञान कराते हैं। इस प्राकृत.
SR No.091018
Book TitlePrakruta Prakasa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagganath Shastri
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size14 MB
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