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पाषाणोत्कीर्ण प्रमाण यही शिलालेख है । खारवेल के इस अभिलेख से जैन धर्म की प्राचीनता का ज्ञान होता है। नन्दवंशीय राजा नंद के समय में भी जैन धर्म का प्रचार था । इस शिलालेख की 12वीं पंक्ति में स्पष्ट उल्लेख है कि शताब्दियों पहले नंद जिस कलिंग - स्थित जिन की प्रतिमा को ले गया था, उसे सम्राट खारवेल ने मगध पर चढ़ाई करके वापस प्राप्त किया । जैन पंच नमस्कार मंत्र सर्वप्रथम लिखित रूप में इसी शिलालेख में नमो अरहंतानं । नमो सवसिधानं के रूप में प्राप्त होता है ।
5. इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि सम्राट खारवेल एक जैन धार्मिक नरेश था । उसने जैन साधुओं को संरक्षण प्रदान किया था तथा उनके निर्वाह के लिए पर्याप्त दान दिये। उसने एक बड़ा जैन सम्मेलन उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर बुलाया था, उसमें पण्डित, ऋषि, श्रमण व तपस्वी आदि एकत्रित हुए थे । मौर्यकाल में जो श्रुत विस्मृत हो गया था, उसका उसने पुनरुद्धार कराया। जैन संघ ने खारवेल को खेमराजा, भिक्षुराजा और धर्मराजा की पदवी प्रदान की थी। वह स्वयं जैन था, किन्तु अन्य धर्मों के प्रति उसमें सहिष्णुता थी । उसने सभी देवताओं के मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया था ।
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भाषिक एवं साहित्यिक दृष्टि से इस अभिलेख का अपना महत्त्व है। इस अभिलेख की भाषा प्राचीन शौरसेनी है। इसमें शौरसेनी प्राकृत भाषा की एक निश्चित परम्परा दृष्टिगोचर होती है । यद्यपि इसमें शौरसेनी की समस्त प्रवृत्तियाँ विद्यमान नहीं हैं तथापि उसके आदि रूपों की झलक इसमें प्राप्त होती है। अशोक के शिलालेखों की अपेक्षा इस शिलालेख में भाषा का प्रवाह अधिक देखने में आता है, जिससे इस काल की प्राकृत की समृद्धता का अनुमान किया जा सकता है। इसके शब्द विन्यास रचयिता की काव्य कुशलता का संकेत देते हैं। शब्द नपे-तुले हैं। संक्षिप्तता में यह सूत्रशैली की याद दिलाता है ।
इन प्रमुख शिलालेखों के अतिरिक्त उदयगिरि तथा खण्डगिरि के शिलालेख एवं पश्चिमी भारत के आन्ध्र राजाओं के शिलालेख साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। प्राकृत के विकसित रूप इन शिलालेखों में पाये जाते हैं। नाटकीय प्राकृतों के विभिन्न रूप भी इनकी भाषा में समाविष्ट हैं
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