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में पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय-निरोध, छ: आवश्यक आदि को । मिलाकर श्रमण के 28 मूलगुणों के स्वरूप एवं उनके पालन से प्राप्त फल का विवेचन है। द्वितीय बृहत्प्रत्याख्यानाधिकार में श्रमण को सभी पापों का त्याग करने, कषाय रहित रहने, परीषहों को समताभाव से सहने, चार आराधनाओं में स्थिर रहने आदि का उपदेश दिया गया है। तीसरे संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकार में आकस्मिक मृत्यु के समय कषाय व आहार त्याग का निर्देश दिया है। समाचाराधिकार में दस प्रकार के आचारों का वर्णन है। पंचाचाराधिकार में दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का भेद सहित विस्तार से वर्णन है। प्रसंगवश इसमें आगम व सूत्र ग्रन्थों का भी उल्लेख हुआ है। पिण्डशुद्धिअधिकार में श्रमणों की पिण्डैषणा से सम्बन्धित नियमों की मीमांसा की गई है। षडावश्यकाधिकार में 'आवश्यक' शब्द का अर्थ बताते हुए सामायिक, स्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान एवं कायोत्सर्ग इन छ: आवश्यकों का भेदपूर्वक विस्तार से निरूपण किया है। इस अधिकार के प्रारम्भ में अर्हन्त, जिन, आचार्य, साधु आदि पंचनमस्कार की निरुक्तिपूर्वक व्याख्या प्रस्तुत की गई है। द्वादशानुप्रेक्षाधिकार में अनित्य, अशरण, अशुचि आदि बारह अनुप्रेक्षाओं का सूक्ष्म विवेचन करते हुए इन्हें कर्मक्षय व परिणामशुद्धि का माध्यम बताया गया है। अनगारभावनाधिकार में अनगार का स्वरूप, चिन्ह, व्रत, भिक्षा, विहार आदि से सम्बंधित शुद्धियों का पालन करने का निर्देश है। समयसाराधिकार में शास्त्र के सार का प्रतिपादन करते हुए चारित्र को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। जीवों की रक्षा के लिए यतना को श्रेष्ठ कहा गया है। यथा -
जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये । जदं भुंजेज भासेज एयं पावं ण बज्झई ।।(गा. 1015)
अर्थात् -- यतनापूर्वक आचरण करे, यतनापूर्वक बैठे, यतनापूर्वक सोये, यतनापूर्वक भोजन करे, यतनापूर्वक बोले, इस प्रकार पापकर्म नहीं बंधता है। शीलगुणाधिकार में शील के 18,000 भेदों का कथन किया गया है। पर्याप्तिअधिकार में जीव की छः पर्याप्तियों को बताकर संसारी जीव के अनेक भेद-प्रभेदों का कथन किया गया है।