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में ही दूसरी गाथा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यकचारित्र और सम्यक्तप के उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधना आदि को आराधना कहा है। यथा -
उज्जोवणमुजवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं । दसणणाणचरित्ततवाणमाराहणा भणिया ।।(गा. 2)
यद्यपि अन्य जैनागमों में भी सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र व तप का विवेचन हुआ है, परन्तु वहाँ उन्हें आराधना शब्द से अभिव्यक्त नहीं किया गया है। इस ग्रन्थ में मरते समय की आराधना को ही यथार्थ आराधना कहा है। उसी के लिए जीवन भर की आराधना की जाती है। मरते समय विराधना होने पर जीवन भर की आराधना निष्फल हो जाती है। अतः जो मरते समय आराधक होता है, उसी की सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र व तप रूप साधना को आराधना शब्द से परिभाषित किया है। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से मरणसमाधि का कथन है। ग्रन्थ के आरम्भ में 17 प्रकार के मरण बताये गये हैं। इनमें से पंडितपंडितमरण, पंडितमरण और बालपंडितमरण को श्रेष्ठ कहा है। इसके अतिरिक्त इसमें आर्यिकाओं के लिए संघ-नियम, अचेलक्य, नाना देशों में विहार करने के गुण, संलेखना, ध्यान, लेश्या, बारह भावनाओं, आलोचना के गुणदोष, पंचनमस्कार मंत्र की महत्ता, मुनियों के मृतक संस्कार आदि का भी निरूपण हुआ है। प्रसंगवश गजकुमार, भद्रबाहु, विद्युच्चर, अश्वघोष, धर्मघोष आदि साधुओं की कथाएँ भी वर्णित हैं। श्री अपराजितसूरि ने इस पर अपनी टीका लिखी है। मूलायारो
मूलाचार प्रमुख रूप से श्रमणाचार का प्राचीन ग्रन्थ है। शौरसेनी प्राकृत में रचित इस ग्रन्थ के रचयिता आचार्य वट्टकेर हैं। भाषा व विषय दोनों ही दृष्टियों से यह ग्रन्थ प्राचीन है। इसका रचनाकाल लगभग चतुर्थ शताब्दी माना गया है। इस ग्रन्थ में 12 अधिकार हैं, जिनमें श्रमण-निर्ग्रथों की आचार संहिता का सुव्यवस्थित, विस्तृत एवं सांगोपांग विवेचन किया गया है। इसकी तुलना आचारांग से की जाती है। आचार्य वीरसेन ने षट्खण्डागम की धवला टीका में मूलाचार के उद्धरण को 'आचारांग' नाम दे कर इसका आगमिक महत्त्व प्रतिपादित किया है। प्रथम मूलगुणाधिकार