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पंचत्थिकायो
पंचास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने जिनदेव भगवान् महावीर के सिद्धान्तों के सार को संक्षिप्त रूप से निरूपित किया है। इस ग्रन्थ में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म व आकाश इन पाँचों द्रव्यों का विवेचन किया गया है। इन्हें बहुप्रदेशी होने के कारण अस्तिकाय रूप कहा है। यह ग्रन्थ दो अधिकारों में विभक्त है। प्रथम अधिकार में द्रव्य का लक्षण, द्रव्य-पर्याय तथा द्रव्य-गण की अभेदता एवं पाँचों अस्तिकायों का विशेष व्याख्यान किया है। द्वितीय अधिकार में जीव, अजीव, आस्रव, बंध, पाप, पुण्य, संवर, निर्जरा व मोक्ष इन नौ पदार्थों के साथ मोक्ष-मार्ग का भी निरूपण किया है। मोक्ष-मार्ग प्राप्ति में राग को बाधक बताया है तथा किंचित मात्र राग का भी आचार्य ने निषेध किया है। यथा--
तम्हा णिबुदिकामो रागं सव्वत्थ कुणदि मा किंचि । सो तेण वीदरागो भविओ भवसायरं तरदि ।। (गा. 172)
अर्थात् - निर्वाण मार्ग के अभिलाषी को किंचित मात्र भी राग नहीं करना चाहिए। इसी से वह वीतरागी हुआ संसार सागर को पार कर जाता
है।
नियमसारो
नियमसार आचार्य कुन्दकुन्द की आध्यात्मिक रचना है। इसमें मिथ्यादर्शनादि को त्यागने तथा शुद्धभाव में स्थित आत्मा की आराधना का कथन किया गया है। इस ग्रन्थ में 186 गाथाएँ हैं, जो 12 अधिकारों में विभक्त हैं। नियम का अर्थ है – मोक्ष प्राप्ति का मार्ग। इस दृष्टि से इस ग्रन्थ में सम्यग्ज्ञान---दर्शन-चारित्र को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग कहा है
सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो। तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ।। (गा. 134)
अर्थात् – जो श्रमण या श्रावक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की भक्ति करता है, वह निश्चित रूप से निर्वाण की भक्ति होती है। ऐसा जिनेन्द्रों द्वारा कहा गया है।
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