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वस्तुतः आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने वाड्.मय द्वारा मानव मात्र के हित का मार्ग प्रशस्त किया है। उनके उपदेश मानवीय गुणों के विकास का ही संदेश देते हैं। लोक-कल्याण की भावना उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। बोधपाहुड में धर्म की परिभाषा देते हुए उन्होंने कहा है धम्मो दया विसुद्धो( गा. 25) अर्थात् धर्म वही है जो दया या अनुकंपा से युक्त हो। उनका मानना था कि धर्म में सच्ची श्रद्धा मनुष्य को पापरहित, दृढ़ एवं मानवीय गुणों से युक्त बनाती है। आचार्य कुन्दकुन्द आगम परम्परा के संवाहक आचार्य के साथ ही एक ऐसे क्रान्तिकारी सन्त थे, जिन्होंने अनेकान्त शैली अपनाकर दर्शन व आचार के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये। उनकी दृष्टि सहिष्णु व उदार थी। अन्य धर्मों के प्रति भी उनके मन में आदर व सम्मान था। उनका कहना था कि सभी सम्प्रदाय व मत मानव के कल्याण के लिए होने चाहिये। अतः किसी भी धर्म या मत के पालन में मनुष्य को रोक-टोक नहीं होनी चाहिए । आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाएँ उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की द्योतक हैं। मानव के आध्यात्मिक विकास हेतु उन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनकी सभी रचनाएँ शौरसेनी प्राकृत में हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। पवयणसारो
__ प्रवचनसार की गणना शौरसेनी आगम साहित्य में द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत की जाती है। इस ग्रन्थ के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार इसमें 275 गाथाएँ हैं तथा आचार्य जयसेन के अनुसार 317 गाथाएँ हैं। यह ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त करके लिखा गया है। प्रत्येक भाग के प्रारम्भ में महत्त्वपूर्ण मंगलाचरण की गाथाएँ हैं। प्रथम भाग ज्ञानाधिकार में आत्मा व ज्ञान के एकत्व पर बल दिया गया है यथा - जो जाणदि सो णाणं हवदि । (गा, 36) अर्थात् जो जानता (ज्ञाता) है वह ज्ञान है। इस अधिकार में केवलज्ञान का विशिष्ट विवेचन हुआ है। केवलज्ञान की महत्ता को प्रदर्शित करते हुए कहा गया है कि जीव जब सम्पूर्ण रूप से केवलज्ञान को प्राप्त होता है, तब जीव, पुद्गलादि द्रव्यों की समस्त अतीत, वर्तमान