________________
के लिए की गई थी। श्रमण जीवन के लिए अनिवार्य आचार से सम्बन्धित नियमों का इस ग्रन्थ में सुन्दर संयोजन किया गया है। इसका उद्देश्य मुमुक्षु साधकों को अल्प समय में ही आवश्यक ज्ञान प्रदान कर उन्हें आत्मकल्याण के मार्ग की साधना के पथ पर आगे बढ़ाना है। दशवैकालिक में दस अध्ययन हैं, जिनमें श्रमण जीवन के आचार-गोचर सम्बन्धी नियमों का प्रतिपादन किया गया है। प्रथम अध्ययन द्रुमपुष्पिका में अहिंसा, तप व संयम युक्त धर्म को उत्कृष्ट मंगल रूप माना है – धम्मो मंगलमुक्किटुं अहिंसा संजमो तवो । द्वितीय श्रामण्य अध्ययन में रथनेमि व राजीमती के संवाद के माध्यम से कामना के निवारण के उपाय बताये गये हैं। तृतीय अध्ययन क्षुल्लकाचार में यह स्पष्ट किया गया है कि जिसकी धर्म में धृति नहीं होती है, वह आचार व अनाचार में भेद नहीं कर सकता है। इसमें 52 अनाचारों का उल्लेख हुआ है। चतुर्थ अध्ययन में षट्जीवनिकाय का वर्णन तथा उनकी रक्षा के लिए पाँच महाव्रतों के पालन व रात्रि भोजन के निषेध पर चिन्तन किया गया है। पाँचवें पिण्डैषणा अध्ययन में साधु के लिए भोजन आदि के ग्रहण व परिभोग की एषणा का सुन्दर वर्णन है। छठे अध्ययन महाचार में अनाचार के विविध पहलुओं पर विचार किया गया है, इसमें परिग्रह की सीमाओं का भी विवेचन है। सातवें वाक्य-शुद्धि अध्ययन में भाषा दोष को त्यागने तथा हित-मित और पथ्य भाषा बोलने की शिक्षा दी गई है। आठवें अध्ययन आचारप्रणिधि में श्रमण को इन्द्रियनिग्रह कर मन को एकाग्र करने का संदेश दिया गया है। क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषाय के निग्रह का यह संदेश दृष्टव्य है -
उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ।। (गा. 8.39)
अर्थात् – क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव भाव से जीते। माया को सरल भाव से और लोभ को संतोष से जीते।
नवें अध्ययन विनय समाधि में विनय की विविध धाराओं का प्रतिपादन हुआ है। दसवें सभिक्षु अध्ययन में संवेग, निर्वेद, विवेक, आराधना, ज्ञान, तप आदि को भिक्षु के लक्षण बताये हैं।