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मृगापुत्र, इषुकारीय, रथनेमि आदि आख्यान सरस एवं रोचक हैं। ये आख्यान जहाँ एक ओर धर्मतत्त्व का प्रतिपादन करते हैं, वहीं दूसरी ओर तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं को भी प्रकाशित करते हैं। उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन 'विनयसूत्र' में गुरु शिष्य के सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। विनीत शिष्य का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि
आणानिद्देसकरे गुरूणमुववायकारए। इंगियाकारसंपन्ने से विणीए त्ति वुच्चई ॥(गा. 1.2 )
अर्थात् – गुरु की आज्ञा व निर्देश के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला, उसकी सेवा – शुश्रूषा करने वाला तथा उसकी चेष्टा एवं आकृति से ही उसके आन्तरिक मनोभावों को समझने वाला शिष्य विनीत कहलाता है।
बाइसवें अध्ययन 'रथनेमि' में अपने बोध वचनों के द्वारा संयम से भटके रथनेमि को उद्बोधन देकर सन्मार्ग पर लाती हुई राजीमती नारी के उदात्त रूप को चित्रित करती है। पच्चीसवें अध्ययन में जन्मना जातिवाद का खंडन कर कर्मणा जातिवाद की स्थापना करते हुए सच्चे श्रमण व ब्राह्मण का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि एवं तप से तपस्वी होता है। यथा -
समयाए समणो होई, बंभचेरेण बंभणो । णाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ।।(गा. 25.32)
पैंतीसवें 'अनगार' नामक अध्ययन में यह स्पष्ट किया गया है कि केवल घर छोड़ने से कोई अनगार नहीं बन जाता है बल्कि आध्यात्मिक मार्ग में गति-प्रगति उसके लिए आवश्यक है। इस प्रकार इसके विभिन्न अध्ययनों में तत्त्व-चर्चा, श्रमण जीवन के आचार, संसार की असारता, कर्म प्रकृति आदि विषयों का निरूपण हुआ है। दसवेयालियं
__मूल आगमों में दशवैकालिक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस सूत्र की रचना आचार्य शय्यंभवसूरि द्वारा अपने नवदीक्षित अल्प आयु वाले शिष्यों