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________________ मूलसूत्र मूलसूत्रों की मान्यता कब से प्रचलित हुई यह निश्चित नहीं है। विक्रम संवत् 1334 में निर्मित प्रभावक चरित में सर्वप्रथम इसका उल्लेख मिलता है। मूलसूत्रों की परिभाषा देते हुए आचार्य देवेन्द्रमुनि ने लिखा है कि जिन आगमों में मुख्य रूप से श्रमण के आचार सम्बन्धी मूल गुणों, महाव्रतों, समिति, गुप्ति आदि का निरूपण है और जो श्रमण जीवन-चर्या में मूल रूप से सहायक बनते हैं और जिन आगमों का अध्ययन श्रमण के लिए सर्वप्रथम अपेक्षित है, उन्हें मूलसूत्र कहते हैं। मूलसूत्रों की संख्या को लेकर मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान् उत्तराध्ययन, आवश्यकसूत्र एवं दशवैकालिक इन तीनों को ही मूलसूत्रों में गिनते हैं। कुछ इसमें पिण्डनियुक्ति को शामिल कर उनकी संख्या चार मानते हैं। कुछ ओघनियुक्ति को भी इनमें सम्मिलित कर मूलसूत्र पाँच मानते हैं। स्थानकवासी व तेरापंथी उत्तराध्ययन व दशवैकालिक के साथ नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार को सम्मिलित कर मूलसूत्र की संख्या चार मानते हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य देवेन्द्र मुनि ने अपने ग्रन्थ 'जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा' में विस्तृत विवेचन किया है। उत्तरज्झयणाई उत्तराध्ययन जैन अर्धमागधी आगम साहित्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ माना जाता है। इसे महावीर की अन्तिम देशना के रूप में स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययन की विषयवस्तु प्राचीन है। समवायांग व उत्तराध्ययननियुक्ति में उत्तराध्ययन की जो विषयवस्तु दी गई है, वह उत्तराध्ययन में ज्यों की त्यों प्राप्त होती है। उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन हैं, इनमें संक्षेप में प्रायः सभी विषयों से सम्बन्धित विवेचन उपलब्ध है। धर्म, दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि की निर्मल धाराएँ इसमें प्रवाहित हैं। जीव, अजीव, कर्मवाद, षड्द्रव्य, नवतत्त्व, पार्श्वनाथ एवं महावीर की परम्परा प्रभृति सभी विषयों का इसमें समावेश हुआ है। दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ-साथ इसमें बहुत सारे कथानकों एवं आख्यानों का भी संकलन हुआ है। इसमें वर्णित नमिप्रव्रज्या, हरिकेशी, चित्त-संभूति,
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
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