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महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, श्रमण-श्रमणी के आचार, गोचरी, भिक्षाचरी, कल्प, क्रिया आदि के नियमों, दोषों व उनके शुद्धिकरण के उपायों का वर्णन हैं। महानिसीहं
___महानिशीथ को समस्त अर्हत् प्रवचन का सार माना गया है। वस्तुतः मूल रूप में जो महानिशीथ था, वह यथावत रूप में उपलब्ध नहीं रहा। वर्तमान में आचार्य हरिभद्र द्वारा उसका परिष्कार कर संशोधन किया गया रूप उपलब्ध है, जिसे सिद्धसेन, यक्षसेन, नेमिचन्द्र, जिनदासगणि आदि आचार्यों ने भी बहुमान्य किया है। इसकी भाषा एवं विषय के स्वरूप को देखते हुए यह सूत्र अर्वाचीन ही प्रतीत होता है। इसमें छ: अध्ययन व दो चूला हैं, जिनमें क्रमशः 18 पापस्थान, पाप कर्मों की आलोचना, पंच मंगल का महत्त्व, कुशील साधु का संसर्ग छोड़ने, गुरु-शिष्य के पारिवारिक सम्बन्ध तथा आलोचना व प्रायश्चित्त का वर्णन मिलता है। जीयकप्पो
जीतकल्पसूत्र के रचयिता विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण हैं। जीत या जीय का शाब्दिक दृष्टि से अर्थ है – परम्परा से आगत आचार, मर्यादा, व्यवस्था या प्रायश्चित्त से सम्बन्ध रखने वाला एक प्रकार का रिवाज । इस दृष्टि से इस सूत्र में जैन श्रमणों के आचार-व्यवहार से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों पर विचार किया गया है। 103 गाथाओं में प्रायश्चित्त का महत्त्व तथा आत्मशुद्धि में उसकी उपादेयता का प्रतिपादन किया गया है। इसमें प्रायश्चित्त के 10 भेदों का वर्णन हुआ है
1. आलोचना 2. प्रतिक्रमण 3. मिश्र-आलोचना-प्रतिक्रमण 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप
7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य 10. पारांचिक ।