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अंगीकार करती हैं। अन्ततः सभी देवियाँ देवलोक से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि प्राप्त करेंगी। इन कथाओं के माध्यम से शुद्ध श्रमणाचार के पालन की प्रेरणा दी गई है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह आगम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत आगम के अध्ययन से भगवान् पार्श्वनाथ के समय की श्रमण परम्परा का ज्ञान तो होता ही है, साथ ही तदयुगीन श्रमणियों के पूर्व व पर भव के जीवन-चरित का भी परिचय मिलता है। वण्हिदसा
वृष्णिदशा अंतिम उपांग है। प्रस्तुत उपांग में बारह अध्ययन हैं। इनमें वृष्णिवंश के बलदेवजी के निषधकुमार आदि 12 पुत्रों का भगवान् नेमिनाथ के पास दीक्षित होने एवं साधना करके सर्वार्थसिद्धि विमान में जाने तथा वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मोक्ष में जाने का वर्णन है। इस उपांग में पौराणिकता का प्रतिपादन अधिक हुआ है। भगवान् अरिष्टनेमि के विषय में विशेष चित्रण हुआ है तथा उनके शासन काल में दीक्षित अणगारों का भी वर्णन प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व, प्रभुत्व, सैन्य, समृद्धि, गरिमा आदि का निरूपण हुआ है। यादव वंश के प्रागऐतिहासिक विवरण की दृष्टि से इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण सामग्री संकलित है। प्रकीर्णक
जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने प्रकीर्णक को परिभाषित करते हुए कहा है कि अरहंतों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करते हुए श्रमण-निग्रंथ भक्ति भावना व श्रद्धावश मूल भावना से दूर न रहते हुए, जिन ग्रन्थों का निर्माण करते हैं, उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं। भगवान् श्रषभदेव के 84,000 तथा भगवान् महावीर के 14,000 प्रकीर्णक होने का उल्लेख मिलता है। नंदीसूत्र, स्थानांगसूत्र, व्यवहारसूत्र, धवला, पाक्षिक आदि सूत्रों में विभिन्न प्रकीर्णक ग्रन्थों के नाम गिनाये गये हैं, किन्तु इस क्रम में कुछ ग्रन्थों का विच्छेद हो गया तथा कुछ नये शास्त्र ग्रन्थ जुड़ते भी गये हैं। अतः सर्वमान्य रूप में प्रकीर्णक की संख्या निश्चित नहीं हो सकी है। वर्तमान समय में श्वेताम्बर परम्परा के 45 आगमों की मान्यता में निम्न 10 प्रकीर्णक मान्य हैं -