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के साथ जीव के अस्तित्व व नास्तित्व को लेकर संवाद करता है। मुनिकेशी इस दुर्गम प्रश्न का युक्ति व सरलता से समाधान करते हैं। समाधान पाकर राजा प्रदेशी अन्त में सम्यग्दृष्टि बन जाता है। राजा प्रदेशी व केशी कुमार श्रमण के इस संवाद द्वारा 'जीव व शरीर एक है', इस मत का खण्डन कर ‘जीव व शरीर भिन्न है', इस तथ्य का प्रतिपादन किया गया है। इस आगम से पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बन्धित अनेक बातों की जानकारी तो प्राप्त होती ही है, साथ ही स्थापत्य, संगीत, वास्तु, नृत्य व नाट्य कला सम्बन्धी अनेक तथ्यों पर भी प्रकाश पड़ता है। जीवाजीवाभिगमो.
जीवाजीवाभिगम तृतीय उपांग है। इस उपांग में भगवान् महावीर व गौतम गणधर के प्रश्नोत्तर के रूप में जीव-अजीव के भेद-प्रभेद की चर्चा की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में 272 गद्य सूत्र और 81 पद्य गाथाएँ हैं, जो 9 प्रकरणों में विभक्त हैं। जैन तत्त्वज्ञान का मूल बिन्दु जीव या आत्मा है। अतः इस आगम में अजीव तत्त्व का संक्षेप में वर्णन करते हुए जीव तत्त्व का विवेचन विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। प्रधान रूप से जीव के विविध भेदों को ध्यान में रखते हुए जीव तत्त्व का विवेचन किया गया है। जीव के भेदों के विवेचन के साथ उन जीवों की स्थिति, अन्तर, अल्प-बहुत्व का भी वर्णन किया गया है। इसके अध्ययन से व्यक्ति आत्मा व शरीर की भिन्नता का बोध प्राप्त करते हुए चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकता है। जीव-अजीव के वर्णन की प्रधानता होते हुए भी प्रस्तुत ग्रन्थ में द्वीप, सागरों, 16 प्रकार के रत्नों, अस्त्र-शस्त्रों के नाम, धातुओं के नाम, विविध आभूषण, वस्त्र, त्यौहार, उत्सव, नट, यान, उद्यान, वाणी, प्रसाधन, घर आदि के सरस व साहित्यिक वर्णन हैं। प्राचीन लोकजीवन की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। पण्णवणा
जैन उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र का चौथा स्थान है। यह जैन तत्त्वज्ञान का उद्बोधक सूत्र है। प्रज्ञापना का अर्थ है - ज्ञापित करना या बतलाना। प्रस्तुत आगम में जीव-अजीव की प्रज्ञापना होने के कारण इसे प्रज्ञापन के नाम से जाना गया है। अजीव तत्त्व का वर्णन इसमें संक्षिप्त
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