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रूप से प्रस्तुत किया गया है तथा जीव तत्त्व की चर्चा अति विस्तार से की गई है। उपांग साहित्य में प्रज्ञापनासूत्र का वही स्थान है, जो अंग साहित्य में व्याख्याप्रज्ञप्ति का है। व्याख्याप्रज्ञप्ति की तरह प्रज्ञापना के लिए भगवती विशेषण प्रयुक्त हुआ है, जो इसकी महत्ता को सूचित करता है। आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना को समवायांग का उपांग कहा है, किन्तु इसके रचयिता स्वयं श्यामाचार्य ने प्रज्ञापना को दृष्टिवाद का निष्कर्ष कहा है। प्रज्ञापनासूत्र व षट्खण्डागम दोनों का विषय प्रायः समान है तथा षट्खण्डागम की रचना दृष्टिवाद के अंश से हुई है। इस दृष्टि से प्रज्ञापना का सम्बन्ध दृष्टिवाद से जोड़ा जा सकता है। प्रज्ञापनासूत्र में 36 पद हैं, जिनमें स्थान, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन आदि अनेक दृष्टियों से जीवों के भेद-प्रभेद व अल्प-बहुत्व पर विचार किया गया है। जम्बुद्दीवपण्णत्ती
____ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को कहीं पाँचवां उपांग माना है तो कहीं छठवाँ । इस उपांग में एक अध्ययन व सात वृक्षस्कार (प्रकरण) हैं। इनमें क्रमशः भरतक्षेत्र, कालचक्र, भरत चक्रवर्ती, चुल्ल हिमवंत, जिन-जन्माभिषेक, जम्बूद्वीप व ज्योतिष्क देवों का वर्णन है। प्रस्तुत आगम भूगोल की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। जैन दृष्टि से ऋषभदेव का प्रागऐतिहासिक जीवन चरित का इसमें वर्णन हुआ है। भरत की दिग्विजय, भरत व किरातों के युद्ध, तीर्थंकर के कल्याण-महोत्सव, बहत्तर कलाएँ, स्त्रियों की विशिष्ट चौसठ कलाएँ तथा अनेक शिल्प आदि का भी इसमें वर्णन हुआ है। सूरपण्णत्ती
सूर्यप्रज्ञप्ति को भी कहीं पाँचवां, कहीं छठवाँ व कहीं सातवाँ उपांग माना है। इसमें 20 पाहुड, 108 गद्य सूत्र तथा 103 पद्य गाथाएँ हैं। इसमें सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की गतियों का विस्तार से वर्णन है। प्रसंगवश द्वीप व सागरों का निरूपण हुआ है। प्राचीन ज्योतिष सम्बन्धी मूल मान्यताएँ भी इसमें संकलित हैं। इसे ज्योतिष, भूगोल, गणित व खगोल विज्ञान का महत्त्वपूर्ण कोश कह सकते हैं।