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उमास्वाति ने किया। जैन आगम साहित्य दो भागों में विभक्त है, अंग प्रविष्ट में बारह अंग आते हैं, जो गणधरकृत माने जाते हैं। उपांग का समावेश अंग बाह्य में किया गया है। ये स्थविरकृत माने गये हैं। जैन वाङ्मय में इनका महत्त्व अंग साहित्य से कुछ कम नहीं है। उपांग बारह माने गये हैं। इनका संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत है।
उववाइयं
औपपातिकसूत्र जैन वाङ्मय का प्रथम उपांग है। इसके दो अध्ययन हैं – समवसरण व उपपात । अभयदेवसूरि ने वृत्ति में लिखा है कि उपपात अर्थात् देव और नारकियों के जन्म या सिद्धिगमन का वर्णन होने से प्रस्तुत आगम का नाम औपपातिक है। इसमें विभिन्न सम्प्रदायों के तापसों, परिव्राजकों, श्रमणों आदि को उनकी साधनाओं के द्वारा प्राप्त होने वाले भवान्तरों का मार्मिक वर्णन हुआ है। इस ग्रन्थ में एक ओर जहाँ धार्मिक व दार्शनिक विवेचन मिलते हैं, वहीं दूसरी ओर राजनैतिक, सामाजिक तथा नागरिक तथ्यों की चर्चा भी हुई है। यह आगम वर्णन प्रधान शैली में रचित है। चम्पा नगरी, वनखण्ड, चैत्य, राजा, रानी आदि के वर्णनों की दृष्टि से यह अन्य आगमों के लिए सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में जाना जाता है। जिन विषयों का इसमें विवेचन है, वह सम्पूर्णता के साथ है। इसमें भगवान् महावीर के समस्त अंगोपांगों का विशद् वर्णन किया गया है। भगवान् के समवसरण का सजीव चित्रण व उनकी महत्त्वपूर्ण उपदेश-विधि भी इसमें सुरक्षित है। श्रमण जीवन एवं स्थविर जीवन के वर्णन में द्वादशविध तप का भी इसमें विस्तृत विवेचन हुआ है। वस्तुतः यह आगम ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप के साधकों के लिए आचरणीय है।
रायपसेणइयं
नंदीसूत्र में द्वितीय उपांग राजप्रश्नीय का नाम 'रायपसेणिय' मिलता है। इसके दो विभाग हैं। प्रथम भाग में सूर्याभ नामक देव का वर्णन है, जो भगवान् महावीर के सामने उपस्थित होकर नृत्य व विभिन्न प्रकार के नाटकों की रचना करता है। दूसरे भाग में सूर्याभ के पूर्वजन्म का वृत्तांत है। सूर्याभ का जीव राजा प्रदेसी के रूप में पार्श्वनाथ परम्परा के मुनि केशी