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________________ में विविध पाप-कृत्य किए हैं, उन्हें आगामी जीवन में दारुण वेदनाएँ प्राप्त हुईं तथा जिन्होंने पूर्वभवों में सुकृत किये उन्हें पुण्य स्वरूप सुख उपलब्ध हुआ। कर्म सिद्धान्त जैन दर्शन का मुख्य सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त का दार्शनिक विश्लेषण तो इस ग्रन्थ में नहीं मिलता है, किन्तु कथाओं के माध्यम से कर्मसिद्धान्त का जिस प्रकार सूक्ष्म व सम्यक् प्रतिपादन किया गया है, वह असाधारण है। प्रथम श्रुतस्कन्ध दुःख विपाक के दस अध्ययनों में अशुभ कर्मों का फल दिखाने के लिए मृगापुत्र, उज्झित, अभग्गसेन, शकट, बृहस्पतिदत्त, नंदीवर्धन, उम्बरदत्त शौर्यदत्त, देवदत्ता व अंजुश्री के कथानक वर्णित हैं । द्वितीय श्रुतस्कन्ध सुखविपाक में शुभकर्मों का फल दिखाने हेतु सुबाहु, भद्रनन्दी, सुजातकुमार, सुवासवकुमार, जिनदास, धनपति, महाबल, भद्रनन्दीकुमार, महाचन्द्र कुमार और वरदत्त कुमार के कथानक वर्णित हैं। आयुर्वेद की दृष्टि से यह शास्त्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । इसमें नाना व्याधियों के औषध व उपचार का वर्णन हुआ है। विपाकसूत्र मूलतः मानव जीवन की यात्रा के उतार-चढ़ाव को दर्शाता है । सामाजिक दृष्टि से पुरातन मान्यताओं, प्रवृत्तियों, प्रथाओं एवं अपराधों का भी परिचय प्राप्त होता है । दिट्टिवायो 1 दृष्टिवाद बारहवाँ अंग है। इसमें संसार के सभी दर्शनों एवं नयों का निरूपण किया गया है । दृष्टिवाद अब विलुप्त हो चुका है। श्रुतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गवास के पश्चात्, दृष्टिवाद का धीरे-धीरे लोप होने लगा तथा देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के स्वर्गवास के बाद यह शब्द रूप से पूर्णतया नष्ट हो गया। अर्थरूप में कुछ अंश बचा रहा । समवायांग व नन्दीसूत्र में इसके पाँच विभाग बताये गये हैं- परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका । षट्खण्डागम, कषायपाहुड आदि शौरसेनी दिगम्बर आगम ग्रन्थ इसी दृष्टिवाद अंग के स्मृत ज्ञान पर आधारित माने गये हैं । उपांग ऐसा माना जाता है कि मूल बारह अंग ग्रन्थों के अर्थों को स्पष्ट करने के लिए उपांगों की रचना हुई । उपांग शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 35
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
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