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________________ प्रथम वर्ग में धारिणी पुत्र 'जालि' तथा तीसरे वर्ग में भद्रा पुत्र 'धन्य' का चरित्र विस्तार से वर्णित है। मुनि बनने के बाद धन्य ने जो तपस्या की वह अद्भुत एवं अनुपम है। तपोमय जीवन का इतना सुन्दर एवं सर्वांगीण वर्णन श्रमण साहित्य में तो क्या, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता है। इस आगम के अध्ययन से महावीरकालीन सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियों से भी अवगत हुआ जा सकता है। पण्हावागरणाई द्वादशांगी में प्रश्नव्याकरणसूत्र का दसवाँ स्थान है। समवायांग, नंदी, व अनुयोगद्वारसूत्र में प्रश्नव्याकरण के लिए 'पण्हावागरणाइं' शब्द मिलता है। इसका शाब्दिक अर्थ है – 'प्रश्नों का व्याकरण' अर्थात् निर्वचन, उत्तर एवं निर्णय। इन ग्रन्थों में प्रश्नव्याकरणसूत्र में दिव्य–विद्याओं, लब्धियों, अतिशयों आदि से सम्बन्धित जिस विषय सामग्री से युक्त प्रश्नों का उल्लेख किया गया है, वर्तमान समय में वह सामग्री इस ग्रन्थ में तनिक भी नहीं प्राप्त है। संभवतः वर्तमान समय में कोई इस सामग्री का दुरुपयोग न करे, अतः इन विषयों को निकालकर इस ग्रन्थ में आस्रव व संवर के वर्णन का समावेश कर दिया गया है। यह आगम दो खण्डों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः मन के रोगों का उल्लेख व उनकी चिकित्सा का विवेचन किया गया है। प्रथम खण्ड में उन रोगों के नाम बताये गये हैं – हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह। द्वितीय खण्ड में इन रोगों की चिकित्सा बताई गई है - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । आस्रव और संवर का निरूपण व विश्लेषण इस आगम ग्रन्थ में जिस विस्तार से किया गया है, वह अनूठा व अद्भुत है। विवागसुयं विपाकसूत्र का द्वादशांगी में ग्यारहवाँ स्थान है। विपाक का अर्थ है- फल या परिणाम । यह आगम दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है - (1) सुख विपाक (2) दुःख विपाक । इनमें प्राणियों द्वारा किये गये सुकृत और दुष्कृत कर्मों के फल को दिखाने के लिए 20 कथाएँ आई हैं। इन कथाओं के माध्यम से यही समझाने का प्रयत्न किया गया है कि जिन जीवों ने पूर्वभवों <34>
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
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