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या है। दिलीपक शैली में है। तुम्बा, क
चार बहुओं की परीक्षा लेकर सबसे बुद्धिमान बहू को कुटुम्ब का मुखिया नियुक्त करता है। मेघकुमार, द्रौपदी, मल्ली आदि के कथानक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों को लिए हुए हैं। तुम्बा, कुम्मे, मयूरी के अंडे, नंदीफल आदि कथाएँ रूपक शैली में हैं, जिनके द्वारा भव्य जीवों को प्रतिबोध दिया गया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में 10 अध्ययन हैं। इनमें प्रायः स्वर्ग के इन्द्रों जैसे-चमरेन्द्र, असुरेन्द्र, चन्द्र, सूर्य, ईशानादि की अग्रमहिषियों के रूप में उत्पन्न होने वाली पुण्यशाली स्त्रियों की कथाएँ हैं। इन कथाओं के माध्यम से संयम साधना की श्रेष्ठता का विवेचन किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में तत्कालीन समाज व संस्कृति का सुन्दर चित्रण हुआ है। उवासगदसाओ
द्वादशांगी में उपासकदशांग का सातवाँ स्थान है। यह सूत्र धर्मकथानुयोग के रूप में प्रस्तुत हुआ है। भगवान् महावीर युग के दस उपासकों के पवित्र चरित्र का इसमें वर्णन है, जिन्होंने प्रभु महावीर के धर्म उपदेशों से प्रभावित होकर अपने जीवन को सार्थक कर दिया। अतः इसका नाम उपासकदशांग सार्थक प्रतीत होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में एक श्रुतस्कन्ध व दस अध्ययन हैं। इन दस अध्ययनों में क्रमशः आनंद, कामदेव, चुलणीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, कुण्डकोलिक, सकडालपुत्र, महाशतक, नंदिनीपिता और शालिनीपिता श्रमणोपासकों के कथानक हैं। उपासकदशांग में वर्णित ये दसों उपासक विभिन्न जाति और विभिन्न व्यवसाय करने वाले थे। इनके कथानकों द्वारा जैन गृहस्थों के द्वारा पालनीय धार्मिक नियम समझाये गये हैं। इनकी जीवनचर्या के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है कि धर्म का पालन करने में अनेक विघ्न व प्रलोभन सामने आते हैं, लेकिन श्रावक जीवन में रहकर भी परीषहों को सहन कर विभिन्न साधनाएँ की जा सकती हैं। अंगसूत्र में यह एक मात्र सूत्र है, जिसमें सम्पूर्णतया श्रावकाचार का निरूपण हुआ है। इस दृष्टि से यह ग्रन्थ आचारांग का पूरक है, क्योंकि आचारांग में मुनिधर्म का विस्तृत वर्णन हुआ है और इसमें श्रावकधर्म का विस्तार से निरूपण किया गया है।