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जिसका प्रवाह इसमें न हुआ हो। जीव-अजीव, लोक-अलोक, स्वसमय-परसमय आदि समस्त विषय इसमें समाहित हैं। जनमानस में इस आगम के प्रति विशेष श्रद्धा होने के कारण इसका दूसरा नाम भगवती अधिक प्रचलित है। प्रश्नोत्तर शैली में निबद्ध इस ग्रन्थ में प्रायः प्रश्नों का उत्तर देने में अनेकांतवाद व स्याद्वाद का सहारा लिया गया है। प्रश्नों को कतिपय खंडों में विभक्त कर उत्तर दिया गया है। यथा - गौतम – भन्ते, जीव सकम्प हैं या निष्कंप? भगवान् महावीर – गौतम, जीव सकम्प भी हैं और निष्कम्प भी। गौतम – इसका क्या कारण? भगवान् महावीर – जीव दो प्रकार के हैं – संसारी और मुक्त। मुक्त जीव के दो प्रकार हैं - अनन्तरसिद्ध और परम्परसिद्ध । परम्परसिद्ध तो निष्कम्प हैं और अनन्तरसिद्ध सकम्प। संसारी जीवों के भी दो प्रकार हैं – शैलेशीप्रतिपन्नक और अशैलेशीप्रतिपन्नक। शैलेशीप्रतिपन्नक जीव निष्कम्प होते हैं और अशैलेशीप्रतिपन्नक सकम्प होते हैं। (25.4.81)
इस दृष्टि से जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त अनेकान्तवाद, नयवाद, स्याद्वाद व सप्तभंगी का प्रारंभिक स्वरूप भी इस ग्रन्थ में सुरक्षित है।
णायाधम्मकहाओ
द्वादशांगी में ज्ञाताधर्मकथा का छठा स्थान है। यह आगम दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। वस्तुतः ज्ञाताधर्मकथा में विभिन्न ज्ञात अर्थात् उदाहरणों तथा धर्मकथाओं के माध्यम से जैन धर्म के तत्त्व-दर्शन को समझाया गया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञातकथाएँ एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध में धर्मकथाएँ हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 19 अध्ययन हैं, जिनमें न्याय, नीति आदि के सामान्य नियमों को दृष्टान्तों द्वारा समझाने का प्रयत्न किया गया है। इस श्रुतस्कन्ध में वर्णित कथाएँ लौकिक, ऐतिहासिक व काल्पनिक सभी प्रकार की हैं। रोहिणीज्ञात विशुद्ध लौकिक कथा है, जिसमें ससुर अपनी