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साधना-आराधना करने के इच्छुक मंद बुद्धि स्त्री-पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए सर्वज्ञ भगवान् आगमों का उपदेश प्राकृत में देते हैं । प्रज्ञापनासूत्र में इस भाषा को बोलने वाले को भाषार्य कहा है। मगध के अर्धभाग में बोली जाने के कारण तथा मागधी व देशज शब्दों के सम्मिश्रण के कारण यह अर्धमागधी कहलाती है।
आगमों का वर्गीकरण
विभिन्न परम्पराओं में आगमों का वर्गीकरण अलग-अलग प्राप्त होता है।
(क) सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में आगमों का वर्गीकरण प्राप्त होता है। वहाँ पूर्वो की संख्या चौदह व अंगों की संख्या बारह बताई गई है।
(ख) आगमों का दूसरा वर्गीकरण नंदीसूत्र में मिलता है, इसमें आगमों को अंग प्रविष्ट व अंग बाह्य इन दो भागों में विभक्त किया गया है । अंग प्रविष्ट - अंग प्रविष्ट वह है, जो गणधर के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थकरों द्वारा प्रतिपादित हो, गणधरों द्वारा सूत्र रूप में गूंथा गया हो तथा ध्रुव व अचल हो । यही कारण है कि समवायांग व नंदीसूत्र में द्वादशांग को ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित व नित्य कहा है।
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अंग बाह्य - अंग बाह्य बिना प्रश्न किये तीर्थकरों द्वारा प्रतिपादित होता है तथा स्थविरकृत होता है। आचार्य अकलंक ने कहा है कि आरातीय आचार्यों के द्वारा निर्मित आगम अंगप्रतिपादित अर्थ के निकट या अनुकूल होने के कारण अंग बाह्य कहलाते हैं । समवायांग और अनुयोगद्वार में तो केवल द्वादशांगी का ही निरूपण है, किन्तु नन्दीसूत्र में अंगप्रविष्ट के साथ अंगबाह्य के भेदों का भी विस्तार किया गया है।
(ग) अनुयोगों की दृष्टि से आर्यरक्षित ने सभी आगम ग्रन्थों को चार भागों में विभक्त किया है। यह वर्गीकरण विषय - सादृश्य की दृष्टि से किया गया है । यथा
1. चरणकरणानुयोग
2. धर्मकथानुयोग
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कालिकश्रुत, महाकल्प, छेदश्रुत आदि
ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि