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________________ 2 आगम-परम्परा तीर्थंकर महावीर के उपदेश व आगम जैन परम्परा में तीर्थकरों के द्वारा समय-समय पर आत्मकल्याण के लिए उपदेश दिये जाते रहे हैं। यद्यपि सभी तीर्थकरों के उपदेशों में प्रायः साम्यता होती है, एकरूपता होती है, इसलिए आप्तवाणी को अनादि व अनंत कहा गया है, किन्तु अन्तिम तीर्थंकर के उपदेशों को ही आगम के रूप में स्वीकार कर जैन संघ की शासन व्यवस्था चलती है । इस दृष्टि से भगवान् महावीर की जो उपदेशवाणी थी, उसी को आगमों के रूप में स्वीकार किया गया है। वर्तमान में जो श्रुत उपलब्ध है, वह भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट है। उन्होंने जो कुछ भी अपने श्रीमुख से कहा, वह गणधरों द्वारा ग्रन्थ के रूप में गूंथा गया । अर्थागम तीर्थकरों का होता है और ग्रन्थ के रूप में शब्द - शरीर की रचना गणधर करते हैं । सर्वज्ञ होने के पश्चात् भगवान् महावीर द्वारा जनकल्याण की भावना से जो धर्मदेशना दी गई उस अर्थागम रूप धर्मदेशना को गणधरों द्वारा सूत्रागम के रूप में ग्रथित किया गया । श्रुत की वह प्रवाहमय ज्ञानराशि आज आगम ग्रन्थों के रूप में उपलब्ध है । आगम शब्द का अर्थ 'आगम' का शाब्दिक अर्थ है पदार्थ के रहस्य का परिपूर्ण ज्ञान। आचारांग में आगम शब्द का प्रयोग जानने या ज्ञान के अर्थ में हुआ है। स्थानांग व भगवतीसूत्र में प्रमाण के चार भेदों में चौथा भेद आगम स्वीकार किया गया है। यहाँ आगम शब्द का प्रयोग प्रमाण ज्ञान के अर्थ में हुआ है। समय-समय पर आचार्यों ने आगम की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ भी दी हैं। आगम की सर्वाधिक लोकप्रिय परिभाषा है, 'आप्तोपदेशः शब्दः' अर्थात् आप्त का कथन आगम है; या आप्त-वचन से उत्पन्न अर्थज्ञान आगम है। जिन्होंने राग-द्वेष को जीत लिया है, वे तीर्थंकर, सर्वज्ञ, जिन, वीतराग भगवान् ही आप्त हैं तथा उनके उपदेश या उनकी वाणी आगम कहलाती है । 14
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
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