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के एक सशक्त माध्यम की भाषा के लिए प्रयुक्त होने लगा। छठी शताब्दी के अलंकारशास्त्री आचार्य दण्डी ने अपने ग्रन्थ काव्यादर्श में अपभ्रंश को वाङ्मय के एक प्रकार के रूप में स्वीकार किया है तथा अपभ्रंश में प्रयुक्त होने वाले छंदों का भी निर्देश किया है। 8वीं शताब्दी के कथाकार उद्योतनसूरि ने कुवलयमालाकहा में अपभ्रंश भाषा की प्रशंसा करते हुए उसे 'मनोहर' कहा है। 8वीं शताब्दी तक अपभ्रंश का साहित्य पूर्ण विकसित हो चुका था। अपभ्रंश को स्वयंभू जैसा प्रतिभाशाली कवि प्राप्त हो गया, जिसने भारतीय वाङ्मय के इतिहास में विपुल अपभ्रंश साहित्य की रचना कर अपभ्रंश-युग का प्रवर्तन किया। 10वीं शताब्दी में महाकवि पुष्पदंत ने अपभ्रंश प्रबंध-काव्यों की परम्परा को और भी अधिक पुष्पित व पल्लवित किया। इसी परम्परा में धनपाल, वीर, नयनंदी, कनकामर आदि कवि हुए हैं, जिन्होंने अपभ्रंश को गौरवशाली पद पर प्रतिष्ठित रखा। 12वीं शताब्दी में आचार्य हेमचन्द्र ने अपभ्रंश के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य करके उसे अमर बना दिया। उन्होंने सिद्धहेमशब्दानुशासन के आठवें अध्ययन के चतुर्थ पाद में अपभ्रंश व्याकरण के सूत्रों की रचना कर अपभ्रंश के साहित्यिक स्वरूप को तय कर दिया। इन सूत्रों में नियमों को समझाने के लिए उदाहरण के रूप में जो अपभ्रंश के दोहे संकलित हुए हैं, वे आज अपभ्रंश साहित्य की अनमोल निधि हैं। इन संकलित दोहों का काव्यात्मक सौन्दर्य अनुपम व बेजोड़ है। अर्थात् 12वीं शताब्दी में अपभ्रंश लोकभाषा का पद छोड़कर साहित्यिक भाषा के पद को ग्रहण कर चुकी थी और व्याकरण के नियमों में बंध चुकी थी। आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् महाकवि 'रइधू' (15वीं शताब्दी) तक अपभ्रंश भाषा में विशाल साहित्य का सृजन होता रहा।
इस प्रकार अपभ्रंश में काव्यरचनाएँ छठी शताब्दी से आरम्भ होकर लगभग 16वीं शताब्दी तक चलती रही। लेकिन अपभ्रंश का विकास काल 12वीं शताब्दी तक ही माना गया है। 12वीं शताब्दी के बाद की रचनाओं में हिन्दी का रंग दृष्टिगोचर होने लगा, जिसे विद्वानों ने परवर्ती अपभ्रंश का नाम दिया। परवर्ती अपभ्रंश की रचनाओं में नेमिनाथचउपई, कीर्तिलता, पृथ्वीराजरासो, विद्यापतिपदावली आदि प्रमुख हैं। एक ओर परवर्ती अपभ्रंश की रचनाएँ धीरे-धीरे विभिन्न नवीन भाषाओं के मिश्रण से नये-नये रूपों