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(ग) पैशाची
देश के उत्तर-पश्चिम प्रान्तों के कुछ भाग को पैशाच देश कहा जाता था। वहाँ पर विकसित जनभाषा को पैशाची प्राकृत कहा गया है। चीन व तुर्किस्तान से प्राप्त खरोष्ठी के लेखों व कवलयमालाकहा में पैशाची की विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। यह भाषा किसी विशेष स्थान पर नहीं बोली जाती थी। यह एक जाति विशेष की भाषा थी। अतः वह जाति जहाँ-जहाँ गई, वहाँ-वहाँ अपनी भाषा भी ले गई। अलंकारशास्त्रियों ने इसे भूत भाषा कहा है। पैशाची में लिखे एक स्वतंत्र ग्रन्थ बृहत्कथा का उल्लेख प्राप्त होता है। यह ग्रन्थ मूल रूप में प्राप्त नहीं है। इसके रूपान्तर प्राप्त हैं, जिससे इसके महत्त्व का पता चलता है।
इस प्रकार मध्य युग में प्राकृत भाषा का जितना अधिक विकास हुआ उतनी ही विविधताएँ भी आईं, किन्तु साहित्य में प्रयोग बढ़ जाने से विभिन्न प्राकृतें महाराष्ट्री प्राकृत के रूप में एकरूपता को ग्रहण करने लगी। आवश्यकता का अनुभव करते हुए वैयाकरणों ने महाराष्ट्री प्राकृत के व्याकरण के कुछ नियम तय कर दिये। अतः इस भाषा में स्थिरता आ गई। इसका सम्बन्ध जन-जीवन से कटने लगा और यह साहित्य की भाषा बन कर रह गई। छठी-सातवीं शताब्दी तक प्राकृत ने अपना जनभाषा का स्वरूप अपभ्रंश को सौंप दिया और यहीं से तृतीय युगीन प्राकृत का प्रारंभ हुआ। तृतीय युगीन प्राकृत (अपभ्रंश युग)
जब जनभाषा प्राकृत परिनिष्ठित होकर साहित्यिक भाषा का रूप धारण करने लगी तथा जन-जीवन से दूर हटती गई तब जनभाषा के रूप में एक नई तृतीय युगीन प्राकृत का विकास हुआ, जिसे विद्वानों ने अपभ्रंश का नाम दिया। प्राकृत एवं अपभ्रंश इन दोनों भाषाओं का क्षेत्र प्रायः एक जैसा था तथा इनमें साहित्य-लेखन की धारा भी समान थी। विकास की दृष्टि से भी दोनों भाषाएँ जनबोलियों से विकसित हुई हैं। व्याकरण की दृष्टि से भी इनमें बहुत कुछ समानताएँ हैं, किन्तु इन सब समानताओं से प्राकत और अपभ्रंश को एक नहीं माना जा सकता है। दोनों ही स्वतंत्र