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(क) महाराष्ट्री
महाराष्ट्र प्रान्त की जनबोली से विकसित प्राकृत महाराष्ट्री कहलाई। मराठी भाषा के विकास में इस प्राकृत का महत्त्वपूर्ण योगदान है। महाराष्ट्री प्राकृत के वर्ण अधिक कोमल व मधुर प्रतीत होते हैं, अतः इस प्राकृत का काव्य में सर्वाधिक प्रयोग हुआ है। महाराष्ट्री प्राकृत का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। गाथासप्तशती, सेतुबंध, पउमचरिय, वज्जालग्ग आदि रसमय काव्यों की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत ही है। संस्कृत के प्रसिद्ध नाटककार कालिदास ने अपने नाटकों में पद्य के लिए महाराष्ट्री प्राकृत का भी प्रयोग किया है। ईसा की प्रथम शताब्दी से वर्तमान युग तक इस प्राकृत में अनेक काव्य-ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं। निःसंदेह महाराष्ट्री प्राकृत काव्यग्रन्थों के लिए स्वीकृत एक परिनिष्ठित भाषा बन गई, जिसमें प्राकृत कवियों ने उच्चकोटि की ललित एवं मनोहर रचनाएँ लिखी हैं। प्राकृत वैयाकरणों ने भी महाराष्ट्री प्राकृत की महत्ता को देखते हुए इसके लक्षण विस्तार पूर्वक लिखकर अन्य प्राकृतों की केवल विशेषताएँ गिनाई हैं। यह सामान्य प्राकृत मानी गई है। (ख) मागधी
मगध प्रदेश की जनबोली को सामान्यतः मागधी प्राकृत कहा गया है। मागधी कुछ समय तक राजभाषा रही, अतः इसका सम्पर्क भारत की कई बोलियों के साथ रहा। इसलिए पालि, अर्धमागधी आदि प्राकृतों के विकास में मागधी प्राकृत को मूल माना जाता है। मागधी भाषा में कई लोकभाषाओं का समावेश था। इस भाषा में लिखा कोई स्वतंत्र ग्रन्थ प्राप्त नहीं है। इसके प्राचीन प्रयोगों के उदाहरण अशोक के शिलालेखों में मिलते हैं। संस्कृत नाटकों में अनेक पात्र इसी भाषा का व्यवहार करते हैं। अश्वघोष एवं भास के नाटकों में मागधी के प्राचीन प्रयोग देखने को मिलते हैं। कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम् में मछुए, पुलिस कर्मचारी, सर्वदमन आदि पात्र मागधी प्राकृत में संवाद करते हैं।