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लगा। ई. सन् की प्रथम शताब्दी के लगभग प्रसिद्ध नाटककार अश्वघोष ने सर्वप्रथम अपने नाटकों में प्राकृत का प्रयोग किया। अश्वघोष के शारिपुत्रप्रकरण में अर्धमागधी, मागधी एवं शौरसेनी प्राकृतों के प्राचीन रूप उपलब्ध हैं। इस नाटक की भाषा के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि आगम ग्रन्थों की भाषा नवीन रूपों को ग्रहण करती हुई विकास के पथ पर अग्रसर हो रही थी। द्वितीय युगीन प्राकृत (मध्य युग)
___ ई. सन् की द्वितीय शताब्दी से छठी शताब्दी तक जिस प्राकृत भाषा में साहित्य लिखा गया, उसे मध्य युगीन प्राकृत कहा गया है। यह युग प्राकृत भाषा व साहित्य का समृद्ध युग था। मध्य युगीन प्राकृतों में निम्न प्राकृतों की गणना की जाती है। (1) भास, शूद्रक, कालिदास आदि के नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत (2) गीतिकाव्य व महाकाव्यों की प्राकृत (3) परवर्ती जैन काव्यों की प्राकृत (4) अलंकारशास्त्रियों व वैयाकरणों द्वारा निर्देशित प्राकृत (5) बृहत्कथा की पैशाची प्राकृत । महाकवि भास ने अनेक नाटक लिखे हैं। उनमें से चारुदत्त व अविमारक में प्राकृतों का सर्वाधिक प्रयोग किया है। कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् तथा मालविकाग्निमित्रम् में भी विभिन्न प्राकृतों का प्रयोग मिलता है। शूद्रक के मृच्छकटिकम् नाटक में पात्रानुसार विविध प्राकृतों का प्रयोग मिलता है। चूंकि यह लोकजीवन का प्रतिनिधि नाटक है, अतः इसमें प्रयुक्त प्राकृतों के प्रयोग में भी विविधता है। इस युग में प्राकृत में कथा, चरित, पुराण, महाकाव्य आदि भी लिखे गये। इनमें प्रयुक्त साहित्यिक प्राकृत को महाराष्ट्री प्राकृत कहा गया। इसी युग में गुणाढ्य ने बृहत्कथा लिखी, जिसकी भाषा को पैशाची कहा गया। इस युग तक प्राकृत का सामान्य स्वरूप निश्चित हो चुका था। अतः प्राकृत के स्वतंत्र एवं निश्चित व्याकरण भी लिखे जाने लगे। चण्ड का प्राकृतलक्षण व वररुचि का प्राकृतप्रकाश इस युग के प्रमुख व्याकरण ग्रन्थ थे। इस युग के साहित्य में प्रमुख रूप से तीन प्राकृत भाषाओं का प्रयोग हुआ है – (क) महाराष्ट्री (ख) मागधी (ग) पैशाची।