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प्राप्त होता है। इसी शिलालेख में जैन नमस्कार मंत्र का प्राचीनतम लिखित रूप भी 'नमो अरहंतानं नमो सवसिधानं' के रूप में सुरक्षित है।
निया प्राकृत
सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृत शीघ्र ही देश - विदेशों में फैल गई। इसका प्रयोग भारत के पड़ौसी प्रान्तों में भी बढ़ गया था । इसका पता निया प्रदेशों (चीन व तुर्किस्तान) से प्राप्त लेखों की भाषा से चलता है। इस प्रदेश से प्राप्त लेखों की भाषा को निया प्राकृत कहा गया है। इन लेखों में अधिकतर लेख राजकीय विषयों से सम्बन्धित हैं । इस प्राकृत भाषा का दरदी वर्ग की तोखारी भाषा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है। प्राकृत- धम्मपद की
प्राकृत
पालि में लिखा धम्मपद प्रसिद्ध है । प्राकृत भाषा में लिखा हुआ धम्मपद भी प्राप्त हुआ है, जिसकी लिपि खरोष्ठी है। इसका रचनाकाल 200 ई. के लगभग माना गया है। यह ग्रन्थ खण्डित रूप में प्राप्त है। इसे बी.एम. बरुआ और एस. मित्रा ने सन् 1921 में प्रकाशित किया था । वर्तमान में इसका नया संस्करण डॉ. भागचन्द्र जैन द्वारा सम्पादित किया गया है। वस्तुतः यह धम्मपद पालि त्रिपिटक में से महत्त्वपूर्ण गाथाओं का संकलन है, जिसमें बुद्ध के उपदेशों का संग्रह हुआ है । प्राकृत धम्मपद की विषयवस्तु प्रायः पालि धम्मपद से समानता रखती है । केवल पुनरावृत्ति वाली गाथाओं को इसमें से हटा कर विषय से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण गाथाएँ जोड़ दी गई हैं। इस दृष्टि से इसका महत्त्व पालि धम्मपद से अधिक हो जाता है। प्राकृत धम्मपद का अशोक के मनसेहरा और शाहबाजगढ़ी के खरोष्ठी के अभिलेखों से काफी साम्य है। इस धम्मपद की भाषा पश्चिमोत्तर प्रदेश की भाषा से मिलती है । अतः उत्तर- - पश्चिमी बोली के प्राचीन रूप को समझने की दृष्टि से प्राकृत धम्मपद का महत्त्व बहुत अधिक है।
अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत
आदियुग में प्राकृत भाषा का प्रयोग नाटक साहित्य में भी होने