SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यद्यपि कवि नयचन्द्र ने इसे कर्पूरमंजरी से अधिक श्रेष्ठ सट्टक बताया है, किन्तु शास्त्रीय दृष्टि से इस सट्टक में कुछ कमियाँ रह गई हैं। तीन जवनिकाओं में ही भरतवाक्य के बिना अचानक समाप्त होने के कारण इसकी कथावस्तु अधूरी सी प्रतीत होती है। कथा का अंत कैसे हुआ यह कौतूहल अन्त तक बना रहता है। इसकी कथावस्तु भी अभिजात्य वर्ग के संस्कारों के विरुद्ध ही प्रतीत होती है। नायक के जीवन में मर्यादा का अभाव है। सात रानियों के होते हए नायक रंभामंजरी का अपहरण करा कर विवाह करता है। इस दृष्टि से कथावस्तु में मौलिकता तो है, किन्तु सरसता का अभाव है। यह सट्टक कर्पूरमंजरी के आधार पर ही लिखा गया है। अतः नायक-नायिका का स्वभाव, शृंगार, प्रेम, विरह, बसंतोत्सव आदि सभी कुछ कर्पूरमंजरी की तरह ही वर्णित है। भाषा की दृष्टि से संस्कृत व प्राकृत दोनों भाषाओं का प्रयोग हुआ है। वर्णन-कौशल व छंद-अलंकारों का चारु विन्यास कवि के पांडित्य को दर्शाता है। चन्दलेहा चन्द्रलेखा के कर्ता पारशव वंशीय कवि रुद्रदास हैं। इस सट्टक का रचनाकाल 1660 ई. है। इस सट्टक में चार जवनिकाएँ हैं, जिनमें राजा मानवेद और राजकुमारी चन्द्रलेखा के प्रणय एवं विवाह का वर्णन है। इसकी कथावस्तु का गठन कर्पूरमंजरी के समान है। सट्टक के प्रायः समस्त शास्त्रीय लक्षणों का इसमें निर्वाह किया गया है। महत्त्वाकांक्षी नायक मानवेद में प्रारंभ से ही चक्रवर्ती बनने की अभिलाषा है। चन्द्रलेखा नायिका के समस्त दिव्य गुणों से परिपूर्ण है। इस सट्टक में कवि ने शृंगार रस की उदात्त भूमि पर नायक-नायिका का प्रणय चित्रित किया है। अपनी कल्पना शक्ति से कवि ने कथावस्तु को सरस व रोचक बनाकर इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि घटनाएँ एक के बाद एक नाटकीय ढंग से घटित होती जाती हैं, जिससे कथावस्तु में कौतूहल व रोचकता बराबर बनी रहती है। यथा - विरह व्याकुल चन्द्रलेखा का नायक मानवेद के साथ कदलीगृह में मिलने का दृश्य रोमांचकता के साथ रोचकता को भी लिए हुए है। भाषा कोमल व प्रवाहयुक्त है। काव्य-तत्त्वों की दृष्टि से यह उत्कृष्ट रचना है।
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy