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ने कर्पूरमंजरी की चार जवनिकाओं में राजा चन्द्रपाल एवं कर्पूरमंजरी की प्रणय कथा निबद्ध की है। कथावस्तु पूर्णरूप से काल्पनिक है। राजा चन्द्रपाल के द्वारा अद्भुत दृश्य देखने का अनुरोध करने पर योगी भैरवानंद अपनी योग शक्ति से विदर्भ की राजकुमारी अपूर्व सुन्दरी कर्पूरमंजरी को राजा के समक्ष प्रस्तुत करता है। राजा उसके अनुपम सौन्दर्य को देखकर विमुग्ध हो जाता है। कर्पूरमंजरी राजमहिषी विभ्रमलेखा की मौसेरी बहन है, अतः रानी विभ्रमलेखा अन्तरंगता के कारण उसे अपने पास रखने का अनुरोध करती है। इसके पश्चात् कर्पूरमंजरी व राजा चन्द्रपाल के प्रणय, विरह-व्याकुलता, रानी के कठोर नियंत्रण तथा अन्त में कर्पूरमंजरी एवं राजा चन्द्रपाल का विवाह, राजा द्वारा चक्रवर्ती पद की प्राप्ति आदि घटनाओं के साथ सट्टक की सुखद समाप्ति होती है।
कर्पूरमंजरी सट्टक में कथावस्तु का विनियोजन इस प्रकार हुआ है। कि अन्त तक रोचकता बनी रहती है। प्रारम्भ से अन्त तक नृत्य, संगीत व मनोरंजन की प्रचुरता विद्यमान है। सट्टक के सभी शास्त्रीय लक्षण इसमें विद्यमान हैं। नायक धीर, ललित, सौंदर्य प्रेमी व निश्चित स्वभाव वाला है। नायिका कर्पूरमंजरी मुग्धा, नवकामिनी व अपूर्व सौन्दर्य की स्वामिनी है। राजमहिषी मानिनी है, किन्तु राजा के चक्रवर्ती बनने की अभिलाषा के कारण उन्हें कर्पूरमंजरी के साथ विवाह करने की स्वीकृति दे देती है। शृंगार रस व प्रेम का वातावरण प्रारम्भ से अंत तक व्याप्त है। इस सट्टक में चर्चरी नामक नृत्य का भी प्रयोग हुआ है। शृंगार रस के साथ-साथ हास्य रस का भी अनूठा चित्रण है। तृतीय जवनिका में विदूषक का स्वप्न रोचक व विनोदपूर्ण है। इस सट्टक की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। लोकोक्तियों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी यह सट्टक महत्त्वपूर्ण है। तत्कालीन लोक संस्कृति का इसमें प्रचुर चित्रण हुआ है। सिद्धयोगी भैरवानंद तत्कालीन तन्त्र-विद्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रसंगवश कौल धर्म की विशेषताओं का भी उल्लेख इसमें हुआ है।
काव्यात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से कर्पूरमंजरी अद्वितीय कृति है। इसका पदलालित्य व नाद-सौन्दर्य अनुपम है। इसके सभी पद्य सुन्दर हैं। छन्द अलंकारों का इस सट्टक में सुन्दर विनियोजन हुआ है। कवि ने सुन्दर