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चन्द्रलेखा सट्टक की प्रस्तावना में सट्टक को द्राविड भाषा का शब्द मानते हुए उसकी सुन्दर व्याख्या की है। उन्होंने नृत्य युक्त नाटकीय प्रदर्शन को सट्टक की संज्ञा दी है।
विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर डॉ. नेमिचन्द्रशास्त्री ने सट्टक की निम्न विशेषताओं की ओर संकेत किया है1. सट्टक में चार जवनिकाएं होती हैं। 2. कथावस्तु कल्पित होती है और सट्टक का नामकरण नायिका के
आधार पर होता है। 3. प्रवेशक और विष्कंभक का अभाव होता है। 4. अद्भुत रस का प्राधान्य रहता है। 5. नायक धीर ललित होता है। 6. पटरानी गम्भीरा और मानिनी होती है। इसका नायक के ऊपर पूर्ण
शासन रहता है। 7. नायक अन्य नायिका से प्रेम करता है, पर महिषी उस प्रेम में बाधक
बनती है। अन्त में उसी की सहमति से दोनों में प्रणय-व्यापार सम्पन्न होता है। 8. स्त्री पात्रों की बहुलता होती है। 9. प्राकृत भाषा का आद्योपान्त प्रयोग होता है। 10. कैशिकी वृत्ति के चारो अंगों द्वारा चार जवनिकाओं का गठन किया
जाता है। 11. नृत्य की प्रधानता रहती है। 12. श्रृंगार का खुलकर वर्णन किया जाता है। 13. अन्त में आश्चर्यजनक दृश्यों की योजना की जाती है। कप्पूरमंजरी
कर्पूरमंजरी प्राकृत सट्टक परम्परा का प्रतिनिधि सट्टक है। इसके रचयिता 10वीं शताब्दी के कविराज यायावर वंशीय राजशेखर हैं। राजशेखर