SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निव्वाण लीलावईकहा निर्वाण लीलावती कथा-ग्रन्थ वि.सं. 1082-1095 के मध्य लिखा गया था। इसके कर्ता जिनेश्वरसूरि हैं। मूल ग्रन्थ अनुपलब्ध है। इसका सार रूप संस्कृत में जिनरत्नसूरि का प्राप्य है। इस कथा-ग्रन्थ के माध्यम से यह विवेचित करने का प्रयत्न किया गया है कि क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, चोरी आदि पापों का फल जन्म-जन्मांतरों तक भोगना पड़ता है। कहाकोसपगरणं ___ वर्द्धमानसूरि के शिष्य आचार्य जिनेश्वरसूरि ने वि. सं. 1108 में कथाकोषप्रकरण की रचना की थी। मूल कथा-ग्रन्थ में केवल 30 गाथाएँ हैं। इन गाथाओं में जिन कथाओं के नाम निर्दिष्ट हैं, उनका विस्तार वृत्ति में किया गया है। वृत्ति में 36 मुख्य कथाएँ व 3-4 अवान्तर कथाएँ वर्णित हैं। इनमें से कुछ कथाएँ पुराने ग्रन्थों में मिलती हैं तथा कुछ ग्रन्थकार द्वारा कल्पित हैं। इस ग्रन्थ की कथाएँ बड़ी ही सरस व सुन्दर है। इन कथाओं के माध्यम से कर्म सिद्धान्त की सर्वव्यापकता की सुन्दर प्रतिष्ठा की है। प्रत्येक प्राणी के वर्तमान जन्म की घटनाओं का कारण उसके पूर्वजन्म के कृत्यों को माना है। जन्म-परम्परा एवं प्रत्येक भव के सुख-दुःख में कारण व कार्य के सम्बन्ध को समझाते हुए व्रताचरण के पालन पर बल दिया है। इन कथाओं के माध्यम से जिनपूजा, जिनस्तुति, वैयावृत्य, धर्मउत्साह की प्रेरणा, साधु-दान आदि का फल बड़ी ही सरल व सुन्दर शैली में प्रतिपादित किया गया है। भाषा सरल व बोधगम्य है। कहीं-कहीं अपभ्रंश के पद्य भी हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से यह कथा-ग्रन्थ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्व, धातुवाद, रसवाद और अर्थशास्त्र आदि के विषय में इसमें महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ उपलब्ध हैं। संवेगरंगसाला संवेगरंगशाला के रचयिता जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनचन्द्र हैं, जिन्होंने वि.सं. 1125 में संवेग भाव का निरूपण करने हेतु इस ग्रन्थ में (105>
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy