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वर्णन तथा अवान्तर कथाओं के अभाव के कारण कथानक में रोचकता नहीं है। कथावस्तु अत्यन्त शिथिल है। उसमें जीवन का उतार-चढ़ाव वर्णित नहीं है। बीच-बीच में व्याकरण के उदाहरणों को समाविष्ट कर देने के कारण काव्य में कृत्रिमता आ गई है। किन्तु सजीव वस्तु-वर्णन, प्राकृतिक दृश्यों के मनोरम चित्रण एवं अलंकारों के उत्कृष्ट विन्यास के कारण यह उच्चकोटि का काव्य माना गया है। अणहिल नगर के वर्णन में कवि की यह मौलिक उपमा दृष्टव्य है -
जस्सि सकलंकं वि हु रयणी-रमणं कुणंति अकलंकं । संखधर-संख-भंगोजलाओ भवणंसु-भंगीओ ।।(गा.1.16 )
अर्थात् - जिस नगर में शंख, प्रवाल, मोती, रत्न आदि से ज्योतिर्मय भवनों की उज्जवल किरणें कलंकित चन्द्रमा को भी निष्कलंक बना देती है। लीलावई
प्राकृत साहित्य में लीलावतीकथा की गणना कथाग्रन्थ एवं शास्त्रीय महाकाव्य दोनों ही विधाओं में की गई है। इसके रचयिता 9वीं शताब्दी के महाकवि कोऊहल हैं। दिव्यमानुषी कथा के रूप में प्रसिद्ध इस ग्रन्थ में प्रतिष्ठान नगर के राजा सातवाहन एवं सिंहलद्वीप की राजकुमारी लीलावती की प्रणय कथा वर्णित है। मूल कथानक के साथ अनेक अवान्तर कथाएँ भी गुंफित हुई हैं। यह महाकाव्य किसी धार्मिक या आध्यात्मिक तथ्यों का प्रणयन करने की दृष्टि से नहीं लिखा गया है, लेकिन सामाजिक सन्दर्भो में इस नियम को दृढ़ करता है कि संयत प्रेमी-प्रेमिका यदि अपने प्रेम में दृढ़ हैं तथा विभिन्न प्रेम-परीक्षाओं में खरे उतरते हैं, तो समाज भी उन्हें विवाह-बंधन की अनुमति प्रदान कर देता है। काव्य-तत्त्वों की दृष्टि से यह महाकाव्य अत्यंत समृद्ध है। राजाओं के जीवन-चरित के वर्णन काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत हुए हैं। प्राकृतिक दृश्यों के कलात्मक वर्णन, सरस संवाद व अलंकारों का पांडित्यपूर्ण प्रयोग के कारण ही यह कथाग्रन्थ महाकाव्य की कोटि में गिना जाता है।
इन प्रमुख महाकाव्यों के अतिरिक्त प्राकृत में कृष्णलीलाशुक कवि